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समयसार
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यथा हि कस्यचिदाजन्मप्रसिद्धैकघृतकुम्भस्य तदितरकुम्भानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुम्भ: स मृण्मयो, न घृतमय इति तत्प्रसिद्ध्या कुम्भे घृतकृम्भव्यवहारः, तथास्याज्ञानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान जीव: स ज्ञानमयो, न वर्णादिमय इति तत्प्रसिद्ध्या जीवे वर्णादिमव्यवहारः।
( अनुष्टुभ् ) घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत्। जीवो वर्णादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः।। ४० ।।
-कि जो व्यवहार अप्रयोजनार्थ है ( अर्थात् उसमें प्रयोजनभूत वस्तु नहीं है)। इसी बातको स्पष्ट कहते हैं:
___जैसे किसी पुरुषको जन्मसे लेकर मात्र ‘घी का घड़ा' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हो, उसके अतिरिक्त वह दूसरे घड़ेको न जानता हो, उसे समझाने के लिये जो यह ' घीका घड़ा ' है सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं” इसप्रकार ( समझानेवाले के द्वारा) घड़ेमें - घी के घड़े ' का व्यवहार किया जाता है, क्योंकि उस पुरुष को ' घी का घड़ा ' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है; इसीप्रकार इस अज्ञानी लोकको अनादि संसारसे लेकर 'अशुद्ध जीव' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है, शुद्ध जीवको नहीं जानता, उसे समझाने के लिये (-शुद्ध जीवका ज्ञान करानेके लिये) “जो यह 'वर्णादिमान जीव' है सो ज्ञानमय है, वर्णादिमय नहीं” इसप्रकार (सूत्रमें) जीवमें वर्णादिमानपनेका व्यवहार किया गया है, क्योंकि उस अज्ञानी लोकको ‘वर्णादिमान जीव' ही प्रसिद्ध (ज्ञात)
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते है:
श्लोकार्थ:- [चेत् ] यदि [घृतकुम्भाभिधाने अपि] घीका घड़ा ' ऐसा कहने पर भी [ कुम्भः घृतमयः न] घड़ा है वह घीमय नहीं है (-मिट्टीमय ही है), [ वर्णादिमत्-जीव-जल्पने अपि] तो इसीप्रकार वर्णादिमान् जीव' ऐसा कहने पर भी [ जीवः न तन्मयः ] जीव है वह वर्णादिमय नहीं है ( -ज्ञानघन ही है)।
भावार्थ:-घी से भरे हुए घड़ेको व्यवहारसे · घीका घड़ा ' कहा जाता है तथापि निश्चयसे घड़ा घी-स्वरूप नहीं है; घी घी-स्वरूप है, घड़ा मिट्टी-स्वरूप है; इसीप्रकार वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियों इत्यादिके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप संबंधवाले जीवको सूत्रमें व्यवहारसे ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव' इत्यादि कहा गया है तथापि निश्चयसे जीव उस-स्वरूप नहीं है; वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ इत्यादि पुद्गलस्वरूप हैं, जीव ज्ञानस्वरूप है। ४०।
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