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जीव-अजीव अधिकार
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(उपजाति) वर्णादिसामग्र्यमिदं विदन्तु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य। ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः।। ३९ ।।
शेषमन्यव्यवहारमात्रम्पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव। देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता।।६७ ।।
पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा बादराश्च ये चैव। देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः।। ६७ ।।
यत्किल बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ता: अप्रयोजनार्थ: परप्रसिद्ध्या घृतघटवद्व्यवहारः।
श्लोकार्थ:-अहो ज्ञानी जनों! [ इदं वर्णादिसामग्र्यम् ] ये वर्णादिकसे लेकर गुणस्थानपर्यंत भाव हैं उन समस्त को [ एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम् ] एक पुद्गलकी रचना [ विदन्तु] जानों; [ ततः ] इसलिये [ इदं ] यह भाव [ पुद्गलः एव अस्तु] पुद्गल ही हों, [न आत्मा ] आत्मा न हों; [ यतः ] क्योंकि [ सः विज्ञानघनः ] आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञानका पुंज है, [ ततः ] इसलिये [ अन्यः ] वह इन वर्णादिक भावोंसे अन्य ही है। ३९।
अब, यह कहते हैं ज्ञानघन आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है उसे जीव कहना सो सब व्यवहारमात्र है:
पर्याप्त अनपर्याप्त जो, हैं सूक्षम अरु बादर सभी। व्यवहार से कही जीवसंज्ञ, देहको शास्त्रन महीं।। ६७।।
गाथार्थ:- [ ये] जो [ पर्याप्तापर्याप्ताः ] पर्याप्त , अपर्याप्त [ सूक्ष्माः बादराः च] सूक्ष्म और बादर आदि [ ये च एव ] जितनी [ देहस्य ] देहकी [ जीवसंज्ञाः] जीवसंज्ञा कही हैं वे सब [ सूत्रे ] सूत्रमें [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [ उक्ताः ] कही हैं।
टीका:-बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त , अपर्याप्त-इन शरीरकी संज्ञाओंको (नामोंको) सूत्रमें जीवसंज्ञारूपसे कहा है, वह परकी प्रसिद्धिके कारण, 'घी के घड़े'की भाँति व्यवहार है
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