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जीव-अजीव अधिकार
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एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इतिमोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।। ६८ ।। मोहनकर्मण उदयात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि।
तानि कथं भवन्ति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि।।६८ ।। मिथ्यादृष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाक-पूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा, यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन, पुद्गल एव, न तु जीवः। गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावऽ व्याप्तस्यात्मनोऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम्।एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थानसंक्लेशस्थान
अब कहते हैं कि (जैसे वर्णादि भाव जीव नहीं हैं यह सिद्ध हुआ उसी प्रकार ) यह भी सिद्ध हुआ कि रागादि भाव भी जीव नहीं है:
मोहनकरमके उदयसे , गुणस्थान जो ये वर्णयें। वे क्यों बने आत्मा, निरंतर जो अचेतन जिन कहे ?।। ६८।।
गाथार्थ:- [ यानि इमानि ] जो यह [ गुणस्थानानि ] गुणस्थान हैं वे [ मोहनकर्मणः उदयात् तु] मोहकर्मके उदयसे होते हैं [ वर्णितानि] ऐसा (सर्वज्ञके आगममें ) वर्णन किया गया है; [ तानि] वे [ जीवाः ] जीव [ कथं ] कैसे [ भवन्ति ] हो सकते हैं [ यानि ] कि जो [ नित्यं] सदा [ सचेतनानि ] अचेतन [ उक्तानि ] कहे गये
टीका:-ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक मोहकर्मकी प्रकृतिके उदयपूर्वक होते होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे , कारण जैसा ही कार्य होता है ऐसा समझकर ( समझकर, निश्चय कर), जौ पूर्वक होनेवाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्याय से, वे पुद्गल ही हैं-जीव नहीं। और गुणस्थानोंका सदा ही अचेतनत्व तो आगमसे सिद्ध होता है तथा चैतन्यस्वभावसे व्याप्त जो आत्मा उससे भिन्नपने से वे गुणस्थान भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं इसलिये भी उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है।इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संकलेशस्थान,
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