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कर्ता-कर्म अधिकार
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प्रतिभाति, न पुनरन्यत; तथा ससंसारनि:संसारावस्थयो: पुद्गल-कर्मविपाकसम्भवा सम्भवनिमित्तयोरपि पुद्गलकर्मजीवयोर्व्याप्यव्यापक-भावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ, जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत; तथायमेव च भाव्यभावकभावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्।
अथ व्यवहारं दर्शयति
ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं। तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं।। ८४ ।।
प्रतिभासित होता है परंतु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; इसी प्रकार संसारयुक्त और नि:संसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका संभव (होना; उत्पत्ति) और असंभव (न होना) निमित्त होनेपर भी पुद्गलकर्म और जीवको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होने से कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर संसारयुक्त अथवा निःसंसार अवस्थामें आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर संसारयुक्त अथवा संसाररहित ऐसा अपनेको करता हुआ अपनेको एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो परंतु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फिर उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभवन अशक्य है इसलिये, संसारसहित अथवा संसाररहित अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो परंतु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो।
भावार्थ:-आत्माके परद्रव्य-पुद्गलकर्मके निमित्तसे संसारयुक्त और संसाररहित अवस्था है। आत्मा उस अवस्थारूपसे स्वयं ही परिणमित होता है। इसलिये वह अपना ही कर्ता-भोक्ता है; पुद्गलकर्मका कर्ता-भोक्ता तो कदापि नहीं
है।
अब व्यवहार बतलाते हैं:
आत्मा करे बहुभाँति पुद्गलकर्म-मत व्यवहारका । अरु वो हि पुद्गलकर्म, आत्मा नेकविधमय भोगता ।। ८४ ।।
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