________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पूर्वरंग
सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं सञ्चेतयमानः प्रतपामि। एवं प्रतपतश्च मम बहिर्विचित्रस्वरूप-सम्पदा विश्वे परिस्फुरत्यपि न किञ्चनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फुरितत्वात्।
(वसन्ततिलका) मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः।
आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः।। ३२ ।।
परिणमित नहीं हुआ इसलिये परमार्थसे मैं सदा ही अरूपी हूँ। इसप्रकार सबसे भिन्न ऐसे स्वरूपका अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवंत हूँ। इसप्रकार प्रतापवंत वर्तते हुवे ऐसे मुझे यद्यपि ( मुझसे) बाह्य अनेक प्रकारकी स्वरूप-संपदाके द्वारा समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं तथापि, कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप भासते नहीं कि जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूपसे मेरे साथ एक होकर पुनः मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरससे ही मोहको मूलसे उखाड़कर-पुनः अंकुरित न हो इसप्रकार नाश करके, महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है।
भावार्थ:-आत्मा अनादि कालसे मोहके उदयसे अज्ञानी था, वह श्री गुरुओंके उपदेशसे और स्व-काललब्धिसे ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूपको परमार्थसे जाना कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ। ऐसा जाननेसे मोहका समूल नाश हो गया, भावकभाव और ज्ञेयभावसे भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभवमें आई; तब फिर पुनः मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है ? नहीं हो सकता।
अब, ऐसा जो आत्मानुभव हुआ उसकी महिमा कहकर आचार्यदेव प्रेरणारूप काव्य कहते हैं कि--ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मामें समस्त लोक निमग्न हो जाओ:---
श्लोकार्थ:- [ एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः ] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-तिरस्करिणी भरेण आप्लाव्य ] विभ्रमरूपी आड़ी चादरको समूलतया डुबोकर (दूर करके) [प्रोन्मग्नः ] स्वयं स्ल्ग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः] इसलिये अब समस्त लोक [शान्तरसे ] उसके शांत रसमें [ समम् एव ] एक साथ ही [निर्भरम् ] अत्यन्त [ मज्जन्तु] मग्न हो जाओ जो शांत रस [ आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक पर्यंत उछल रहा है।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com