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समयसार
भावार्थ:-जैसे समुद्रके आड़े कुछ आये तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह आड़ दूर हो जाये तब जल प्रगट होता है; वह प्रगट होनेपर, लोगोंको प्रेरणायोग्य होता है कि 'इस जलमें सभी लोग स्नान करो'; इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रमसे आच्छादित था तब उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था ; अब विभ्रम दूर हो जाने से यथास्वरूप (ज्योंका त्यों स्वरूप) प्रगट हो गया; इसलिये ‘अब उसके वीतराग विज्ञानरूप शांतरसमें एक ही साथ सर्व लोक मग्न होओ' इसप्रकार आचार्यदेवने प्रेरणा की है। अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब आत्माका अज्ञान दर होता है और केवलज्ञान प्रगट होनेपर समस्त लोकमें रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञानमें झलकते हैं उसे समस्त लोक देखो।। ३२ ।।
इसप्रकार इस समयप्राभृतग्रंथकी आत्मख्याति नामक टीकामें टीकाकार ने पूर्वरंगस्थल कहा।
यहाँ टीकाकारका यह आशय है कि इस ग्रंथको अलंकारसे नाटकरूपमें वर्णन किया है। नाटकमें पहले रंगभूमि रची जाती है। वहाँ देखने वाल, नायक तथा सभा होती है और नृत्य (नाट्य , नाटक) करनेवाले होते है जो विविध प्रकारके स्वांग रखते हैं तथा श्रृंगारादिक आठ रसोंका रूप दिखलाते हैं। वहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत-यह आठ रस लौकिक रस हैं; नाटकमें इन्हींका अधिकार है। नवमा शांतरस है जो कि अलौकिक है; नृत्यमें उसका अधिकार नहीं है। इन रसोंके स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, अनुभावी भाव, व्यभिचारी भाव और उनकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रंथोंमें है वहाँ से जान लेना। सामान्यतया रसका यह स्वरूप है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय आया उसमें ज्ञान तदाकार हुवा, उसमें पुरुषका भाव लीन हो जाये और अन्य ज्ञेयकी इच्छा नहीं रहे सो रस है। उन आठ रसोंका रूप नत्यमें नत्यकार बतलाते हैं; और उनका वर्णन करतें हए कवीश्वर जब अन्य रसको अन्य रसके समान कर भी वर्णन करते हैं तब अन्य रसका अन्य रस अंगभूत होनेसे तथा अन्यभाव रसोंका अंग होनेसे, रसवत् आदि अलंकारसे उसे नृत्यरूपमें वर्णन किया जाता है।
यहाँ पहले रंगभूमिस्थल कहा। वहाँ देखने वाले तो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि पुरुषोंकी सभा है, उनको दिखलाते हैं। नृत्य करने वाले जीव-अजीव पदार्थ हैं और दोनोंका एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं। उनमें वे परस्पर अनेकरूप होते हैं, -आठ रसरूप होकर परिणमन करते हैं, सो वह नृत्य है। वहाँ सम्यग्दृष्टि दर्शक जीव-अजीवके भिन्न स्वरूप को जानता है; वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जानकर शांत रसमें ही मग्न है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीवके भेद नहीं जानते इसलिये वे इन स्वांगोंको ही यथार्थ जानकर उनमें लीन हो जाते हैं।
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