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समयसार
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अहमेक: खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी। नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि।।३८ ।।
___ यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यन्तमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथञ्चनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्त-विस्मृतचामीकराव - लोकनन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूत: स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं ज्योतिः, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिक भावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादिजीवविशेषाजीवपुण्यपापानवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिक-नवतत्त्वेभ्यष्टोत्कीर्णेकज्ञायकस्वभावभावेनात्यन्तविविक्तत्वाच्छुद्धः, चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणादर्शनज्ञानमयः, स्पर्श-रसगन्धवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात्परमार्थतः
अब, इसप्रकार दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत आत्माको स्वरूपका संचेतन कैसे होता है यह कहते हुए आचार्य इस कथनको समेटते हैं:---
गाथार्थ:- दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणत आत्मा यह जानता है कि--- [ खलु ] निश्चयसे [ अहम् ] मैं [ एक:] एक हूँ, [शुद्धः ] शुद्ध हूँ, [ दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय हूँ, [ सदा अरूपी] सदा अरूपी हूँ; [ किञ्चित् अपि अन्यत् ] किंचित्मात्र भी अन्य परद्रव्य [ परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र भी [ मम न अपि अस्ति ] मेरा नहीं है यह निश्चय है।
टीका:-जो, अनादि मोहरूप अज्ञानसे उन्मत्तताके कारण अत्यंत अप्रतिबुद्ध था और विरक्त गुरुसे निरंतर समझाये जानेपर जो किसी प्रकार से समझकर, सावधान होकर, जैसे कोई (पुरुष) मुट्ठीमें रखे हुए सोनेको भूल गया हो और फिर स्मरण करके उस सोनेको देखे इस न्यायसे, अपने परमेश्वर (सर्व सामर्थ्य के धारक) आत्माको भूल गया था उसे जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके (-उसमें तन्मय होकर) जो सम्यक् प्रकारसे एक आत्माराम हुआ, वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि--मैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा हूँ कि जो मेरे ही अनुभवसे प्रत्यक्ष ज्ञात होता है; चिन्मात्र आकारके कारण मैं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तमान व्यावहारिक भावोंसे भेदरूप नहीं होता इसलिये मैं एक हूँ; नर, नारक आदि जीवके विशेष; अजीव , पुण्य , पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षस्वरूप जो व्यावहारिक नव तत्त्व हैं उनसे , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भावके द्वारा, अत्यंत भिन्न हूँ इसलिये मैं शुद्ध हूँ; चिन्मात्र होनेसे सामान्य-विशेष उपयोगात्मकताका उल्लंघन नहीं करता इसलिये मैं दर्शनज्ञानमय हूँ; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जिसका निमित्त है ऐसे संवेदनरूप परिणमित होनेपर भी स्पर्शादिरूपस्वयं
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