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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates पूर्वरंग स्वाभावभेदतया प्रति निर्ममत्वोऽस्मि, धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात्। इतीत्थं ज्ञेयभावविवेको भूतः । ( मालिनी ) इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम्। प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः।। ३१ ।। दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः अथैवं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरति कीदृक् स्वरूपसञ्चेतनं अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारुवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ।। ३८ ।। ७९ हुये स्वभावके कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवोंके प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय ( आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्योंका त्यों ही स्थित रहता है; ( अपने स्वभावको कोई नहीं छोड़ता )। इसप्रकार ज्ञेयभावों से भेदज्ञान हुआ । यहाँ इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ :- [इति ] इसप्रकार पूर्वोक्तरूपसे भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होनेपर जब [ सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति ] सर्व अन्यभावोंसे भिन्नता हुई तब [ अयं उपयोगः] यह उपयोग [ स्वयं ] स्वयं ही [ एकं आत्मानम्] अपने एक आत्माको ही [ बिभ्रत् ] धारण करता हुआ, [ प्रकटितपरमार्थेः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः ] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे दर्शनज्ञानचारित्रसे जिसने परिणति की है ऐसा, [आत्म- आरामे एव प्रवृत्तः ] अपने आत्मारूपी बाग ( क्रीड़ावन) में प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता। भावार्थ:-सर्व परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्न हुए भावोंसे जब भेद जाना तब उपयोगके रमणके लिये अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा । इसप्रकार दर्शनज्ञान - चारित्र के साथ एकरूप हुआ वह आत्मा में ही रमण करता है ऐसा जानना।। ३१।। मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थ से। कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणुमात्र नही अरे ! ।। ३८ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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