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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ७८ णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति।।३७ ।। नास्ति मम धर्मादिर्बुध्यते उपयोग एवाहमेकः। तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३७ ।। अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि स्वरसविजृम्भितानिवारितप्रसरविश्वघस्मरप्रचण्डचिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यन्तमन्तर्मग्नानीवात्मनि प्रकाशमानानि टङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकस्वभावत्वेन तत्त्वतोऽन्तस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुमशक्यत्वान्न नाम मम सन्ति। किञ्चैतत्स्वयमेव च नित्यमेवोपयुक्तस्तत्त्वत एवैकमनाकुलमात्मानं कलयन् भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेक: ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतरसंवलनेऽपि परिस्फुटस्वदमान धर्मादि वे मेरे नहीं, उपयोग केवल एक है। -इस ज्ञानको, ज्ञायक समयके धर्मनिर्ममता कहे।। ३७।। *गाथार्थ:- [ बुध्यते ] यह जाने कि [धर्मादिः ] ' यह धर्म आदि द्रव्य [ मम नास्ति ] मेरे कुछ भी नहीं लगते, [ एकः उपयोगः एव ] एक उपयोग ही [अहम् ] मैं हूँ'- [तं] ऐसा जानने को [ समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धांतके अथवा स्वपरके स्वरूपरूप समयके जानने वाले [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्यके प्रति निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] जानते हैं---कहते हैं। टीका:- अपने निजरससे जो प्रगट हुई है, जिसका विस्तार अनिवार है तथा समस्त पदार्थों को ग्रसित करने का जिसका स्वभाव है ऐसी प्रचंड चिन्मात्रशक्तिके द्वारा ग्रासीभूत किये जाने से, मानों अत्यंत अंतर्मग्न हो रहे हों-ज्ञानमें तदाकार होकर डूब रहे हों इसप्रकार आत्मामें प्रकाशमान यह धर्म, अधर्म, आकाश, काल , पुद्गल , अन्य जीव-ये समस्त परद्रव्य मेरे संबंधी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावत्वसे परमार्थतः अंतरंगतत्त्व तो मैं हूँ और वे परद्रव्य मेरे स्वभावसे भिन्न स्वभाववाले होनेसे परमार्थतः बाह्यतत्त्वरूपता को छोड़ने के लिये असमर्थ हैं (क्योंकि वे अपने स्वभावका अभाव करके ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते) । और यहाँ स्वयमेव, (चैतन्यमें) नित्य उपयुक्त और परमार्थसे एक, अनाकुल आत्माका अनुभवकरता हुआ भगवान आत्मा ही जानता है कि-मैं प्रगट निश्चयसे एक ही हूँ, ज्ञेयज्ञायकभावमात्रसे उत्पन्न परद्रव्यों के साथ परस्पर मिलन होनेपर भी, प्रगट स्वादमें आते * इस गाथाका अर्थ ऐसा भी होता है:--'धर्म आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं, मैं एक हूँ' ऐसा उपयोग ही जाने , उस उपयोगको समयके जाननेवाले धर्म प्रति निर्मम कहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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