SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव-अजीव अधिकार इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धिं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः। (मालिनी) विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः।। ३४ ।। यहाँ पुद्गलसे भिन्न आत्माकी उपलब्धिके प्रति विरोध करनेवाले (-पुद्गलको ही आत्मा जानने वाले) पुरुषको ( उसकी हितरूप आत्मप्राप्तिकी बात कहकर) मीठासपूर्वक ( समभावसे) ही इसप्रकार उपदेश करना यह काव्यमें बतलाते हैं: श्लोकार्थ:- हे भव्य! तुझे [ अपरेण ] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन] व्यर्थ ही कोलाहल करनेसे [ किम् ] क्या लाभ है ? तू [ विरम् ] इस कोलाहलसे विरक्त हो और [एकम् ] एक चैतन्यमात्र वस्तुको [ स्वयम् अपि] स्वयं [ निभृतः सन् ] निश्चल लीन होकर [ पश्य षण्मासम् ] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख की ऐसा करने से [ हृदय-सरसि] अपने हृदयसरोवरमें, [पुद्गगलात् भिन्नधाम्नः ] जिसका तेज, प्रताप, प्रकाश पुद्गलसे भिन्न है ऐसे उस [ पुंसः ] आत्माकी [ ननु किम् अनुपलब्धिः भाति ] प्राप्ति नहीं होती है [ किं च उपलब्धिः ] या होती है ? भावार्थ:-यदि अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है; यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती। अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है। यहाँ छह मासके अभ्यास की बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि इतना ही समय लगेगा। उसकी प्राप्ति तो अंतर्मुहूर्तमात्रमें ही हो सकती है, परंतु यदि शिष्यको बहुत कठिन मालूम होता हो तो उसका निषेध किया है। यदि समझनेमें अधिक काल लगे तो छह माससे अधिक नहीं लगेगा; इसलिये यहाँ यह उपदेश दिया है कि अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल का त्याग करके इसमें लग जानेसे शीघ्र ही स्वरूपकी प्राप्ति हो जायेगी ऐसा उपदेश है। ३४ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy