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समयसार
पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाको जीव: शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्त-तीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु मज्जिता-वदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीव: कात्य॑तः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात् खदाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति।
पुण्यपापरूपसे व्याप्त करता कर्मविपाक भी जीव नहीं है क्योंकि शभाशुभ भावसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ५। साता-असातारूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमंदतारूप गुणोंके द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव भी जीव नहीं है क्योंकि सुख-दुःखसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ६। श्रीखंडकी भाँति उभयात्मकरूपसे मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों मिलकर भी जीव नहीं हैं क्योंकि संपूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ७। अर्थक्रिया में समर्थ कर्मका संयोग भी जीव नहीं है क्योंकि आठ लकड़ियोंके संयोगसे (-पलंगसे) भिन्न पलंग पर सोने वाले पुरुषकी भाँति, कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ८ । (इसीप्रकार अन्य किसी दूसरे प्रकारसे कहा जाये तो वहाँ भी यही युक्ति जानना।)
भावार्थ:-चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोंसे भिन्न, भेदज्ञानियोंके अनुभवगोचर है; इसलिये अज्ञानी जैसा मानते हैं वैसा नहीं है।
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