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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव-अजीव अधिकार यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ता: सन्तश्चैतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहन्ते; ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्ष-त्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः। एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः। इयं तु स्वानु-भवगर्भिता युक्ति:-न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खल्वनाद्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीव: कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरन्तरागरसनिर्भराध्यवसानसन्तानो जीवस्ततोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु विश्वमपि टीका:-यह समस्त अध्यवसानादि भाव, विश्वके ( समस्त पदार्थों के) साक्षात् देखनेवाले भगवान (वीतराग सर्वज्ञ ) अहँतदेवोंके द्वारा, पुद्गलद्रव्यके परिणाममय कहे गये हैं, इसलिये वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होनेके लिये समर्थ नहीं हैं कि जो जीवद्रव्य चैतन्यभावसे शून्य ऐसे पुद्गलद्रव्यसे अतिरिक्त ( भिन्न ) कहा गया है; इसलिये जो इन अध्यवसानादिकको जीव कहते हैं वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं हैं क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है। उनमें, 'वे जीव नहीं हैं' यह सर्वज्ञका वचन है वह तो आगम है और यह (नीम्नोक्त) स्वानुभवगर्भित युक्ति -स्वयमेव उत्पन्न हए राग-द्वेष के द्वारा मलिन अध्यवसान है वे जीव नहीं हैं क्योंकि, कालिमासे भिन्न सुवर्णकी भाँति; अध्यवसानसे भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे चैतन्यभावको प्रत्यक्ष भिन्न अनुभव करते हैं। १। अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनंत जिसका भविष्यका अवयव है ऐसी जो एक संसरणरूप क्रियाके रूपमें क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। २। तीव्र-मंद अनुभवसे भेदरूप होनेपर, दुरंत रागरस से भरे हुए अध्यवसानोंकी संतति भी जीव नहीं है क्योंकि उस संततिसे अन्य पथक चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ३। नई पुरानी अवस्थादिकके भेदसे प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं है क्योंकि शरीरसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ४। समस्त जगतको Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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