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समयसार
८८
इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। एवमेवंप्रकारा इतरेऽपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशन्ति दुर्मेधसः, किन्तु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यन्ते।
कुतःएदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वृचंति।।४४ ।।
एते सर्वे भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः। केवलिजिनैणिताः कथं ते जीव इत्युच्यन्ते।। ४४ ।।
इसीप्रकार कर्मोंके संयोगसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। (आठ लकड़ियाँ मिलकर पलंग बना तब वह अर्थक्रिया में समर्थ हुआ; इसीप्रकार यहाँ भी जानना।) ८। इसप्रकार आठ प्रकार तो यह कहे और ऐसे ऐसे अन्य भी अनेक प्रकारके दुर्बुद्धि ( विविध प्रकारसे) परको आत्मा कहते हैं; परंतु परमार्थके ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते।
भावार्थ:-जीव-अजीव दोनों अनादिकाल से ऐकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मिले हुए हैं, और अनादिकाल से ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी अनेक विकारसहित अवस्थाएं हो रही हैं। परमार्थदृष्टिसे देखनेपर, जीव तो अपने चैतन्यत्व आदि भावोंको नहीं छोड़ता और पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व आदिको नहीं छोड़ता। परंतु जो परमार्थको नहीं जानते वे संयोगसे हुवे भावोंको ही जीव कहते हैं; क्योंकि पुद्गलसे भिन्न परमार्थसे जीवका स्वरूप सर्वज्ञको दिखाई देता है तथा सर्वज्ञकी परंपराके आगमसे जाना जा सकता है, इसलिये जिनके मतमें सर्वज्ञ नहीं हैं वे अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनाएँ करके कहते हैं। उनमेंसे वेदांती, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध , नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोंके आशय लेकर आठ प्रकार तो प्रगट कहे हैं; और अन्य भी अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनाएँ करके अनेक प्रकारसे कहते हैं सो उन्हें कहाँ तक कहा जाये ? ऐसा कहनेवाले सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं सो कहते हैं:
पुद्गलदरब परिणामसे, उपजे हुए सब भाव ये।
सब केवलीजिन भाषिया, किस जीव रीत कहो उन्हें ।। ४४।। गाथार्थ:- [ एते] यह पूर्व कथित अध्यवसान आदि [ सर्वे भावाः] भाव हैं वे सभी [ पुद्गगलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः ] पुद्गलद्रव्यके परिणामसे उत्पन्न हुए हैं इसप्रकार [ केवलिजिनैः ] केवली सर्वज्ञ जिनन्द्रदेवने [ भणिताः ] कहा है [ ते ] उन्हें [ जीवः इति] जीव ऐसा [ कथं उच्यन्ते ] कैसे कहा जा सकता है ?
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