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जीव-अजीव अधिकार
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नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अङ्गारस्येव कार्ष्यादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। अनाद्यनन्त पूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणक्रियारूपेण
क्रीडत्कर्मैव
जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। तीव्रमन्दानुभव-भिद्यमान दुरन्तरागरसनिर्भराध्यवसानसन्तान
एव
जीवस्ततोऽतिरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं नोकमैव जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन्
कर्मविपाक
एव
जीव: शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति
केचित्। सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमान: कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वे- नान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति
केचित्। मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्म-कर्मोभयमेव
जीवः
कात्य॑तः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। अर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगात्खवाया ।
कोई तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न हुए राग-द्वेष के द्वारा मलिन जो अध्यवसान ( अर्थात् मिथ्या अभिप्राय युक्त विभावपरिणाम ) वह ही जीव है क्योंकि जैसे कालेपनसे अन्य अलग कोई कोयला दिखाई नहीं देता उसीप्रकार अध्यवसानसे भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं देता। १। कोई कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनंत जिसका भविष्यका अवयव है ऐसी एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) जो क्रिया है उस रूपसे क्रीड़ा करता हुआ कर्म ही जीव है क्योंकि कर्मसे भिन्न कोई जीव देखाई नहीं देता। २। कोई कहते हैं कि तीव्र-मंद अनुभवसे भेदरूप होते हुए, दुरंत (जिसका अंत दूर है ऐसा) रागरूप रससे भरे हुवे अध्यवसानोंकी जो संतति (परिपाटी) ही जीव है क्योंकि उससे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ३। कोई कहता है कि नई और पुरानी अवस्था इत्यादि भाव से प्रवर्तमान नोकर्म ही जीव है क्योंकि इस शरीरसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ४। कोई यह कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्यपापरूपसे व्याप्त करता हुआ कर्मका विपाक ही जीव है क्योंकि शुभाशुभ भावसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ५। कोई कहता है कि साता-असातारूपसे व्याप्त जो समस्त तीव्रमंदत्वगुणोंसे भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव ही जीव है क्योंकि सुख-दुःखसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ६। कोई कहते हैं कि श्रिखंडकी भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म, दोनों ही मिलकर जीव हैं क्योंकि संपूर्णतया कर्मोंसे भिन्न कोई जीव दिखाई नहीं देता। ७। कोई कहते हैं कि अर्थक्रियामें (प्रयोजनभूत क्रियामें) समर्थ ऐसा जो कर्मका संयोग वह ही जीव है क्योंकि जैसे आठ लकड़ियोंके संयोगसे भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता
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