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समयसार
४५६
अतो नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वावेदक एव।
ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यतेणिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि। महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ।। ३१८ ।।
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति।
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति।। ३१८ ।। ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षण शुद्धात्मज्ञानसद्भावेनपरतोऽत्यन्तविरक्त -त्वात् प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव मुञ्चति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते।
इसलिये यह नियम किया जाता है (ऐसा नियम सिद्ध होता है) कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमें स्थित होनेसे वेदक (भोक्ता) ही है।
भावार्थ:-इस गाथामें, यह नियम बताया है कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता ही है। यहाँ अभव्यका उदाहरण युक्त है। जैसे:--अभव्यका स्वयमेव यह स्वभाव होता है कि द्रव्यश्रुतका ज्ञान आदि बाह्य कारणोंके मिलनेपर भी अभव्य जीव, शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके कारण, कर्मोदयको भोगने के स्वभावको नहीं बदलता; इसलिये इस उदाहरणसे स्पष्ट होता है कि शास्त्रोका ज्ञान इत्यादि होने पर भी जबतक जीवको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है अर्थात् अज्ञानीपन है तबतक नियमसे भोक्ता ही है।
अब,यह नियम करते हैं कि-ज्ञानी तो कर्मफलका अवेदक ही है:
वैराग्यप्राप्त जु ज्ञानिजन है, कर्मफल को जानता। कड़वे-मधुर बहुभॉति को, इससे अवेदक है अहा ।। ३१८ ।।
गाथार्थ:- [ निर्वेदसमापन्नः] निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त [ ज्ञानी] ज्ञानी [ मधुरम् कटुकम् ] मीठे-कड़वे [ बहुविधम् ] अनेक प्रकारके [ कर्मफलम् ] कर्मफलको [विजानाति ] जानता है [ तेन ] इसलिये [ सः ] वह [अवेदकः भवति ] अवेदक है।
टीका:-ज्ञानी तो जिसमेंसे भेद दूर हो गये हैं ऐसा भावश्रुतज्ञान जिसका स्वरूप है, ऐसे शुद्धात्मज्ञानके सद्भावके कारण, परसे अत्यंत विरक्त होनेसे प्रकृति (कर्मोदय) के स्वभावको स्वयमेव छोड़ देता है इसलिये उदयमें आये हुए अमधुर या मधुर कर्मफलको ज्ञातापनेके कारण मात्र जानता ही है, किन्तु ज्ञानके होनेपर (-ज्ञान हो तब) परद्रव्यको 'अहं' रूपसे अनुभव करने की अयोग्यता होनेसे (उस कर्मफलको) नहीं वेदता।
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