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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यतेण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठ वि अज्झाइदूण सत्थाणि। गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होति।।३१७ ।।
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्वपि अधीत्य शास्त्राणि।
गुडदुग्धमपि पिबन्तो न पन्नगा निर्विषा भवन्ति।। ३१७ ।। यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुञ्चति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न मुञ्चति; तथा किलाभव्य: प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव न मुञ्चति, प्रकृतिस्वभावमोचनसमर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच न मुञ्चति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात्।
वेदक है, [ तु] और [ ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो] ज्ञानी तो प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे (-उसे परका स्वभाव जानता है इसलिये-) कदापि वेदक नहीं है। [इति एवं नियमं निरूप्य ] इसप्रकारके नियमको भलीभाँति विचार करके-निश्चय करके [ निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषों! अज्ञानीपनको छोड़ दो और [ शुद्ध-एक-आत्ममये महसि] शुद्ध-एक-आत्मामय तेजमें [ अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो। १९७।
अब, यह नियम बताया जाता है कि, 'अज्ञानी वेदक ही है ' ( अर्थात् 'अज्ञानी भोक्ता ही है ' ऐसा नियम है) :
सदरीते पढ़कर शास्त्र भी, प्रकृति अभव्य नहीं तजे । ज्यों दूध-गुड़ पतिा हुआ भी, सर्प नहिं निर्विष बने ।। ३१७।।
गाथार्थ:- [सुष्ठु ] भली भाँति [शास्त्राणि ] शास्त्रोंको [ अधीत्य अपि] पढ़कर भी [अभव्यः ] अभव्य जीव [ प्रकृतिम् ] प्रकृतिको (अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको) [न मुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [ गुडदुग्धम् ] जैसे मीठे दूधको [ पिबन्तः अपि] पीते हुए भी [पन्नगाः] सर्प [ निर्विषाः ] निर्विष [ न भवन्ति ] नहीं होते।
टीका:-जैसे इस जगतमें सर्प विषभावको अपने आप नहीं छोड़ता, और विषभावके मिटाने में समर्थ-मिश्र सहित दूग्धपानसे भी नहीं छोड़ता, इसीप्रकार वास्तवमें अभव्य प्रकृतिस्वभावको अपने आप नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावको छुड़ाने में समर्थभूत द्रव्यश्रुतके ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता; क्योंकि उसे सदा ही, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके अभावके कारण , अज्ञानीपन है।
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