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________________ १४२ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । णाणी जाणतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।। ७६ ।। नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधम् ।। ७६ ।। यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न अब यह प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मको जाननेवाले जीवके पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं:-- बहुभाँति पुद्गलकर्म सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे । परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।। ७६ ।। गाथार्थ:- [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [ जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [ परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायमें [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [न गृह्णाति] उसे ग्रहण नहीं करता [ न उत्पद्यते ] और उस रूप उत्पन्न नहीं होता। टीका:-प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गलका परिणामस्वरूप कर्म ( कर्ताका कार्य ), उसमें पुद्गलद्रव्य स्वयं अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य और अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस पुद्गलपरिणामको करता है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्यसे किये जाने वाले पुद्गलपरिणामको ज्ञानी जानता हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घड़ेकेरूपमें परिणमित होती है और घड़ेकेरूपमें उत्पन्न होती है, उसीप्रकार ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ( बाहर रहनेवाले) परद्रव्यके परिणाममें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस रूप परिणमित नही होता और उस रूप उत्पन्न नहीं होता । Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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