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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार
( शार्दूलविक्रोडित)
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः। इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिन्दंस्तमो ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान्।। ४९ ।।
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व्यवहारमात्र होनेपर भी पुद्गलपरिणाम जिसका निमित्त है ऐसा ज्ञान ही ज्ञाता का व्याप्य है। (इसलिये वह ज्ञान ही ज्ञाताका कर्म है । )
अब इसी अर्थ का समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत् ] व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही होती है, [ अतदात्मनि अपि न एव] अतत्स्वरूपमें नहीं ही होती। और [ व्याप्यव्यापक– भावसम्भवम् ऋते ] व्याप्यव्यापकभावके संभवके बिना [ कर्तृकर्मस्थितिः का] कर्ताकर्मकी स्थिति कैसे ? अर्थात् कर्ताकर्मकी स्थिति नहीं ही होती । [ इति उद्दाम-विवेक-घस्मर - महोभारेण ] ऐसे प्रबल विवेकरूप, और सबको ग्रासीभूत करनेके स्वभाव वाले ज्ञानप्रकाशके भार से [तमः भिन्दन् ] अज्ञान-अंधकारको भेदता हुआ, [ सः एषः पुमान् ] यह आत्मा [ ज्ञानीभूय ] ज्ञानस्वरूप होकर, [ तदा] उस समय [ कर्तृत्वशून्यः लसितः ] कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है।
भावार्थ:-जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त होता है सो तो व्यापक है और कोई एक अवस्थाविशेष वह, ( उस व्यापकका) व्याप्य है । इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है । द्रव्य - पर्याय अभेदरूप ही हैं। जो द्रव्यका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है वही पर्यायका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्य है । ऐसा होनेसे द्रव्य पर्यायमें व्याप्त होता है और पर्याय द्रव्यके द्वारा व्याप्त हो जाती है। ऐसी व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही ( अभिन्न सत्तावाले पदार्थमें ही ) होती है; अतत्स्वरूपमें ( जिनकी सत्ता-तत्त्व भिन्न भिन्न है ऐसे पदार्थोंमें) नहीं ही होती। व्याप्यव्यापकभाव होता है वहीं कर्ताकर्मभाव होता है; व्याप्यव्यापकभावके बिना कर्ताकर्मभाव नहीं होता। जो ऐसा जानता है वह पुद्गल और आत्माके कर्ताकर्मभाव नहीं हैं ऐसा जानता है। ऐसा जानने पर वह ज्ञानी होता है और कर्ताकर्मभावसे रहित होता है और ज्ञाताद्रष्टाजगतका साक्षीभूत होता है । ४९ ।
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