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समयसार
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(वंशस्थ) इतः पदार्थप्रथनावगुण्ठनाद्विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत्। समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते।। २३४ ।।
यह सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार है, इसलिये ज्ञानको कर्तृत्वभोक्तृत्वसे भिन्न बताया; अब आगे की गाथाओंमें अन्य द्रव्यों और अन्य द्रव्योंके भावोंसे ज्ञानको भिन्न बतायेंगे। पहले उन गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इतः इह ] यहाँ से अब (इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमें आगेकी गाथाओंमें यह कहते हैं कि-) [ समस्त-वस्तु-व्यतिरेक-निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम् ] समस्त वस्तुओंसे भिन्नत्व के निश्चय द्वारा पृथक किया गया ज्ञान, [पदार्थप्रथन-अवगुण्ठनात् कृते: विना] पदार्थ के विस्तार के साथ गूंथित होने से (-अनेक पदार्थों के साथ, ज्ञेय-ज्ञानसंबंधके कारण, एक जैसा दिखाई देने से) उत्पन्न होनेवाली (-अनेक प्रकारकी) क्रिया उनसे रहित [ एकम् अनाकुलं ज्वलत् ] एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुल (-सर्व आकुलतासे रहित) और दैदीप्यमान होता हुआ, [ अवतिष्ठते ] निश्चल रहता है।
भावार्थ:-आगामी गाथाओंमें ज्ञानको स्पृष्टतया सर्व वस्तुओंसे भिन्न बतलाते हैं। २३४।
अब इसी अर्थकी गाथाएँ कहते हैं:
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