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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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(स्रग्धरा) अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसञ्चेतनायाः। पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसञ्चेतनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु।। २३३ ।।
एति] वह पुरुष, जो वर्तमान काले में रमणीय है और भविष्यकालमें भी जिसका फल रमणीय है ऐसे निष्कर्म-सुखमय दशांतरको प्राप्त होता है (अर्थात् जो पहले संसारअवस्थामें कभी नहीं हुई थी ऐसी भिन्न प्रकारकी कर्म रहित स्वाधीन सुखमयदशाको प्राप्त होता है)।
भावार्थ:-ज्ञानचेतनाकी भावनाका फल यह है। उस भावनासे जीव अत्यंत तृप्त रहता है-अन्य तृष्णा नहीं रहती, और भविष्यमें केवलज्ञान उत्पन्न करके समस्त कर्मोंसे रहित मोक्ष-अवस्थाको प्राप्त होता है। २३२।
____ 'पूर्वोक्त रीतिसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्यागकी भावना करके अज्ञानचेतनाके प्रलयको प्रगटतया नचाकर, अपने स्वभावको पूर्ण करके , ज्ञानचेतनाको नचाते हुए ज्ञानीजन सदाकाल आनंदरूप रहो'-ऐसा उपदेशका दर्शक काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ अविरतं कर्मणः तत्फलात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा ] ज्ञानी जन, अविरतपने कर्मसे और कर्मके फलसे विरतिको अत्यंत भा कर ( अर्थात् कर्म और कर्मफल के प्रति अत्यंत विरक्त भावको निरंतर भा कर), [अखिल-अज्ञानसञ्चेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा] (इस भाँति) समस्त अज्ञानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर, [ स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं कृत्वा] निजरससे प्राप्त अपने स्वभावको पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु] अपनी ज्ञानचेतनाको आनंदपूर्वक नचाते हुए अबसे सदाकाल प्रशमरसको पियो अर्थात् कर्मके अभावरूप आत्मिक रसको-अमृतरसको-अभी से लेकर अनंत काल तक पियो। इसप्रकार ज्ञानीजनोंको प्रेरणा की है)।
भावार्थ:-पहले तो त्रिकाल संबंधी कर्मके कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके त्यागकी भावना ( ४९ भंगपूर्वक) कराई। और फिर १४८ कर्मप्रकृतियोंके उदयरूप कर्मफलके त्यागकी भावना कराई। इसप्रकार अज्ञानचेतनाका प्रलय कराकर ज्ञानचेतनामें प्रवृत्त होनेका उपदेश दिया है। यह ज्ञानचेतना सदा आनंदरूप अपने स्वभावकी अनुभवरूपहै। ज्ञानीजन सदा उसका उपभोग करो-ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है। २३३।
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