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समयसार
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( वसन्ततिलका) निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः। चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता।। २३१ ।।
(वसन्ततिलका) यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः। आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः।। २३२ ।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (सकल कर्मोंके फलका त्याग करके ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहता है कि:) [ एवं] पूर्वोक्त प्रकारसे [निःशेष-कर्म-फलंसंन्यसनात् ] समस्त कर्मके फलका संन्यास करनेसे [चैतन्य-लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम् भजतः सर्व-क्रियान्तर-विहार-निवृत्त-वृत्तेः ] मैं चैतन्य लक्षण आत्मतत्त्वको अतिशयता भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व क्रियामें विहारसे मेरी वृत्ति निवृत्त है ( अर्थात् आत्मतत्त्वके उपभोगके अतिरिक्त अन्य जो उपयोगकी क्रिया-विभावरूप क्रिया-उसमें मेरी परिणति विहार-प्रवृत्ति नहीं करती); [ अचलस्य मम] इसप्रकार आत्मतत्त्वके उपभोग में अचल ऐसा मुझे , [इयम् काल-आवली] यह कालकी आवली जो कि [अनन्ता] प्रवाहरूपसे अनंत है वह, [ वहतु] आत्मतत्त्वके उपभोग में ही बहती रहे; ( उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें कभी भी न जाये।)
भावार्थ:-ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानों भावना करता हुआ साक्षात् केवली ही हो गया हो; इससे वह अनंत काल ऐसा ही रहना चाहता है। और यह योग्य ही है; क्योंकि इसी भावनासे केवली हुआ जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न करने का परमार्थ उपाय यही है। बाह्य व्यवहारचारित्र इसीका साधनरूप है; और इसके बिना व्यवहारचारित्र शुभकर्मको बाँधता है, मोक्षका उपाय नहीं है। २३१।
अब पुनः काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पूर्व-भाव-कृत-कर्म-विषद्रुमाणां फलानि यः न भुंक्ते ] पहले अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मरूपी विषवृक्षोंके फलको जो पुरुष ( उसका स्वामी होकर) नहीं भोगता और [ खलु स्वतः एव तृप्तः] वास्तव में अपने से ही ( -आत्मस्वरूपसे ही) तृप्त है, [ सः आपात-काल-रमणीयम् उदर्क-रम्यम् निष्कर्म-शर्ममयम् दशान्तरम्
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