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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४१।
नाहमुच्चैर्गोत्रकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४२। नाहं नीचैर्गोत्रकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४३।
नाहं दानान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४४ । नाहं लाभान्तरायकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४५ । नाहं भोगान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४६ । नाहमुपभोगान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४७। नाहं वीर्यान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४८।
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । १४१ ।
मैं उच्चगोत्रकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४२ । मैं नीचगोत्रकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४३ ।
मैं दानांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४४। मैं लाभांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४५ । मैं भोगांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४६ । उपभोगांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । १४७। मैं वीर्यांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । १४८ । ( इसप्रकार ज्ञानी सकल कर्मोके फलके संन्यासकी भावना करता है ) ।
( यहाँ भावना का अर्थ बारम्बार चिंतवन करके उपयोगका अभ्यास करना है । जब जीव सम्यग्दृष्टि - ज्ञानी होता है तब उसे ज्ञान - श्रद्धान तो हुआ ही है कि 'मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और कर्मके फलसे रहित हूँ' । परंतु पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आने पर उनसे होनेवाले भावोंका कर्तृत्व छोड़कर, त्रिकाल संबंधी ४९ - ४९ भंगों के द्वारा कर्मचेतनाके त्यागकी भावना करके तथा समस्त कर्मोंका फल भोगनेके त्यागकी भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप आत्माको ही भोगना शेष रह जाता है। अविरत, देशविरत और प्रमत्त अवस्थावाले जीवको ज्ञानश्रद्धानमें निरंतर यह भावना तो है ही; और जब जीव अप्रमत्त दशा प्राप्त करके एकाग्र चित्तसे ध्यान करे, केवल चैतन्यमात्र आत्मामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोगरूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोगभावसे श्रेणी चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है। उससमय इस भावनाका फल जो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन है वह होता है। पश्चात् आत्मा अनंत काल तक ज्ञानचेतनारूप ही रहता हुआ परमानंदमें मग्न रहता है। )
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