SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ७४ यथा हि कश्चित्पुरुषः सम्भ्रान्त्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीय- प्रतिपत्त्या परिधाय शयान: स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदञ्चलमालम्ब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिकैः सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुञ्चति तचीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि सम्भ्रान्त्या परकीयान्भावानादायात्मीयप्रतिप-त्यात्मन्यध्यास्य शयान: स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकी क्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैक: खल्वयमात्मेत्यसकृच्छौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिदै : सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुञ्चति सर्वान्परभावानचिरात्। टीका:-जैसे कोई पुरुष धोबीके घरसे भ्रमवश दूसरेका वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी (-यह वस्त्र दूसरेका है ऐसे ज्ञान से रहित) हो रहा है; (किन्तु) जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्रका छोर ( पल्ला) पकड़कर खींचता है और उसे नग्न कर कहता है कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदलेमें आगया है, यह मेरा है सो मुझे देदे', तब बारंबार कहे गये इस वाक्यको सुनता हुआ वह, ( उस वस्त्रके) सर्व चिह्नोंसे भलीभाँति परीक्षा करके, “अवश्य यह वस्त्र दूसरेका ही है' ऐसा जानकर, ज्ञानी होता हुआ, उस (दूसरेके) वस्त्रको शीघ्र ही त्याग देता है। इसीप्रकार-ज्ञाता भी भ्रमवश परद्रव्यके भावोंको ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपनेमें एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है; जब श्री गरु परभावका विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तवमें एक (ज्ञानमात्र) ही है, (अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं), ' तब बारंबार कहे गये इस आगमके वाक्यको सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-परके) चिह्नोंसे भलीभाँति परीक्षा करके, 'अवश्य यह परभाव ही हैं, ( मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ)' यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ , सर्व परभावोंको तत्काल छोड़ देता है। भावार्थ:-जबतक परवस्तुको भूलसे अपनी समझता है तभी तक ममत्व रहता है; और जब यथार्थ ज्ञान होने से परवस्तु को दूसरे की जानता है तब दूसरे की वस्तुमें ममत्व कैसे रहेगा ? अर्थात् नहीं रहे यह प्रसिद्ध है। अब इसी अर्थ का सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं :-- Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy