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पूर्वरंग
( मालिनी )
अवतरति न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव।। २९ ।। अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशङ्क्य भावकभावविवेकप्रकारमाह
त्थि मम को विमोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।। ३६ ।। नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेक: । तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।। ३६ ।।
श्लोकार्थ:- [ अपर-भाव - त्याग – दृष्टान्त-दृष्टि: ] यह परभावके त्यागके दृष्टान्त की दृष्टि, [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यंत वेगसे जबतक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [ तावत्] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [ सकल - भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता ] सकल अन्यभावोंसे रहित [ स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो [ आविर्बभूव ] प्रगट हो जाती है। भावार्थ:-यह परभावके त्यागका दृष्टांत कहा उसपर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त अन्यभावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभवतो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता ।। २९।।
अब, 'इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान कैसे हुआ ?' ऐसी आशंका करके, पहले तो जो भावकभाव - मोहकर्मके उदयरूप भाव, उसके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं:
कुछ मोह वो मेरा नहीं, उपयोग केवल एक है।
इस ज्ञानको ज्ञायक समयके, मोहनिर्ममता कहे ।। ३६ ।।
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*गाथार्थ:- [ बुध्यते ] जो यह जाने कि [ मोहः मम कः अपि नास्ति ] 'मोह मेरा कोई भी (संबंधी ) नहीं है, [ एक: उपयोगः एव अहम् ] एक उपयोग ही मैं हूँ'[तं ] ऐसे जानने को [ समयस्य ] सिद्धांतके अथवा स्वपर स्वरूपके [ विज्ञायका: ] जाननेवाले [ मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे निर्ममत्व [ ब्रुवन्ति ] कहते हैं।
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* इस गाथाका दूसरा अर्थ यह भी है कि: - ' किंचितमात्र मोह मेरा नहीं है, मैं एक हूँ' ऐसा उपयोग ही ( - आत्मा ही ) जाने, उस उपयोगको (-आत्माको ) समयके जाननेवाले मोहके प्रति निर्मल ( ममता रहित ) कहते हैं।
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