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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates पूर्वरंग ( मालिनी ) अवतरति न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव।। २९ ।। अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशङ्क्य भावकभावविवेकप्रकारमाह त्थि मम को विमोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।। ३६ ।। नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेक: । तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।। ३६ ।। श्लोकार्थ:- [ अपर-भाव - त्याग – दृष्टान्त-दृष्टि: ] यह परभावके त्यागके दृष्टान्त की दृष्टि, [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यंत वेगसे जबतक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [ तावत्] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [ सकल - भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता ] सकल अन्यभावोंसे रहित [ स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो [ आविर्बभूव ] प्रगट हो जाती है। भावार्थ:-यह परभावके त्यागका दृष्टांत कहा उसपर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त अन्यभावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभवतो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता ।। २९।। अब, 'इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान कैसे हुआ ?' ऐसी आशंका करके, पहले तो जो भावकभाव - मोहकर्मके उदयरूप भाव, उसके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं: कुछ मोह वो मेरा नहीं, उपयोग केवल एक है। इस ज्ञानको ज्ञायक समयके, मोहनिर्ममता कहे ।। ३६ ।। ७५ *गाथार्थ:- [ बुध्यते ] जो यह जाने कि [ मोहः मम कः अपि नास्ति ] 'मोह मेरा कोई भी (संबंधी ) नहीं है, [ एक: उपयोगः एव अहम् ] एक उपयोग ही मैं हूँ'[तं ] ऐसे जानने को [ समयस्य ] सिद्धांतके अथवा स्वपर स्वरूपके [ विज्ञायका: ] जाननेवाले [ मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे निर्ममत्व [ ब्रुवन्ति ] कहते हैं। । * इस गाथाका दूसरा अर्थ यह भी है कि: - ' किंचितमात्र मोह मेरा नहीं है, मैं एक हूँ' ऐसा उपयोग ही ( - आत्मा ही ) जाने, उस उपयोगको (-आत्माको ) समयके जाननेवाले मोहके प्रति निर्मल ( ममता रहित ) कहते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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