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समयसार
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इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभि-निर्वर्त्यमानष्टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थत: परभावेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोऽपि न नाम मम मोहोऽस्ति। किञ्चेतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचंचुरविकस्वरानवरतप्रतापसम्पदा चिच्छक्तिमात्रेण स्वभावभावेन भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां परस्परसाधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वात् मज्जितावस्थायामपि दधिखण्डावस्थायामिव परिस्फुटस्वदमानस्वादभेदतया मोहं प्रति निममत्वोऽस्मि, सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात्। इतीत्थं भावकभावविवेको भूतः।
टीका:-निश्चयसे, ( यह मेरे अनुभवमें) फलदानकी सामर्थ्यसे प्रगट होकर भावकरूप होनेवाले जो पुद्गलद्रव्यसे रचित मोह मेरा कुछ नहीं लगता, क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभावका परमार्थसे परके भाव द्वारा *भाना अशक्य है।
और यहाँ स्वयमेव, विश्वको (समस्त वस्तुओंको) प्रकाशित करने में चतुर और विकासरूप ऐसी, निरंतर शाश्वत् प्रतापसंपत्तियुक्त है; ऐसा चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभावके द्वारा, भगवान आत्मा ही जानता है कि-परमार्थसे मैं एक हूँ इसलिये, यद्यपि समस्त द्रव्योंके परस्पर साधारण अवगाहका ( –एकक्षेत्रावगाहका) निवारण करना अशक्य होनेसे मेरा आत्मा और जड़, श्रीखंडकी भाँति, एकमेक हो रहे हैं तथापि, श्रीखंडकी भाँति, स्पष्ट अनुभवमें आने वाले स्वादके भेदके कारण, मैं मोहके प्रति निर्मम ही हूँ; क्योंकि सदा अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय (आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्योंका त्यों ही स्थित रहता है। (दही और शक्कर मिलानेसे श्रीखंड बनता है उसमें दही और शक्कर एक जैसे मालूम होते हैं तथापि प्रगटरूप खट्टे-मीठे स्वादके भेदसे भिन्न भिन्न जाने जाते हैं; इसीप्रकार द्रव्योंके लक्षणभेदसे जड़-चेतनके भिन्न भिन्न स्वादके कारण ज्ञात होता है कि मोहकर्मके उदयका स्वाद रागादिक है वह चैतन्यके निजस्वभावके स्वादसे भिन्न ही है।) इसप्रकार भावकभाव जो मोहका उदय उससे भेदज्ञान हुवा।
भावार्थ:-यह मोहकर्म जड़ पुद्गलद्रव्य है; उसका उदय कलुष ( मलिन) भावरूप है; वह भाव भी, मोहकर्मका भाव होनेसे, पुद्गलका ही विकार है। यह भावकका भाव जब चैतन्यके उपयोगके अनुभवमें आता है तब उपयोग भी विकारी होकर रागादिरूप मलिन दिखाई देता है। जब उसका भेदज्ञान हो कि 'चैतन्यकी शक्तिकी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र है और यह कलुषता राग-द्वेषमोहरूप है वह द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गलद्रव्यकी है', तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहके भाव उससे अवश्य भेदज्ञान होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्यके अनुभवरूप स्थित होता है।
* भाना = बनाना; भाव्यरूप करना।
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