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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ४७२ तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे।। ३४० ।। अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि। एसो मिच्छसहावो तुम्हें एयं मुणंतस्स।। ३४१ ।। अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि। ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य का, जे।।३४२ ।। जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु। तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ।। ३४३ ।। अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं। तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि।। ३४४ ।। यों सांख्यका उपदेश ऐसा, जो श्रमण वर्णन करे । उस मतसे सब प्रकृति करे जीव तो अकारक सर्व है ।। ३४०।। अथवा तु माने 'आतमा मेरा स्वआत्माको करे'। तो ये जो तुझ मंतव्य भी मिथ्या स्वभाव ही तुझ अरे ।। ३४१ ।। जीव नित्य है त्यों, है असंख्यप्रदेशी दर्शित समयमें । उससे न उसको हीन, त्योंहि न अधिक कोई कर सके ।। ३४२।। विस्तारसे जीवरूप जीवका लोकमात्र प्रमाण है। क्या उससे हीन रु अधिक बनता द्रव्यको कैसे करें ।।३४३।। माने तु-ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभाव स्थिर रहे'। तो यों भि यह आत्मा स्वयं निज आतमाको नहिं करे ।। ३४४।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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