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समयसार
२५२
स्वपुरुषापराधप्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बन्धावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेवमवतिष्ठते; ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः। अतः स्वयं बन्धत्वात् कर्म प्रतिषिद्धम्।
अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वं दर्शयति
सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिहि त्ति णादव्वो।। १६१ ।। णाणस्य पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो।। १६२ ।।
कालसे अपने पुरुषार्थके अपराधसे प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही, बंध-अवस्थामें सर्व प्रकारसे संपूर्ण अपनेको अर्थात् सर्व प्रकारसे सर्व ज्ञेयोंके जाननेवाले अपनेको न जानता हुआ, इसप्रकार प्रत्यक्ष अज्ञानभावसे (-अज्ञानदशामें) रह रहा है। इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। इसलिये, स्वयं बंधस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है।
भावार्थ:-यहाँ भी 'ज्ञान' शब्दसे आत्मा समझना चाहिये। ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभावसे तो सबको जानने-देखनेवाला है परंतु अनादिसे स्वयं अपराधी होनेके कारण कर्मोसे आच्छादित है, इसलिये वह अपने संपूर्ण स्वरूपको नहीं जानता; यों अज्ञानदशामें रह रहा है। इसप्रकार केवलज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्मोंसे लिप्त होनेसे अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्तता है, इसलिये यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। अतः कर्मोंका निषेध किया गया है।
अब, यह बतलाते हैं कि कर्म मोक्षके कारणके तिरोधायिभावस्वरूप (अर्थात् मिथ्यात्वादिभावस्वरूप) हैं :--
सम्यक्त्वप्रतिबंधक करम, मिथ्यात्व जिनवरने कहा। उसके उदयसे जीव मिथ्यात्वी बने यह जानना ।। १६१।। त्यों ज्ञानप्रतिबंधक करम, अज्ञान जिनवरने कहा। उसके उदयसे जीव अज्ञानी बने यह जानना ।। १६२।।
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