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पुण्य-पाप अधिकार
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कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत्। अतो मोक्षहेतुतिरोधानकरणात् कर्म प्रतिषिद्धम्।
अथ कर्मणः स्वयं बन्धत्वं साधयतिसो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो। संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ।। १६० ।।
स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छन्नः। संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वतः सर्वम्।।१६० ।।
यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादि
कर्ममल द्वारा व्याप्त होनेसे तिरोभूत होता है-जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेत स्वभाव तिरोभूत हो जाता है। इसलिये मोक्षके कारणका ( - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका-) तिरोधान करनेवाला होनेसे कर्मका निषेध किया गया है।
भावार्थ:-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है। ज्ञानका सम्यक्त्वरूप परिणमन मिथ्यात्वकर्मसे तिरोभूत होता है; ज्ञानका ज्ञानरूप परिणमन अज्ञानकर्मसे तिरोभूत होता है; और ज्ञानका चारित्ररूप परिणमन कषायकर्मसे तिरोभूत होता है। इसप्रकार मोक्षके कारणभावोंको कर्म तिरोभूत करता है इसलिये उसका निषेध किया गया है।
अब, यह सिद्ध करते हैं कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है :
यह सर्वज्ञानी-दर्शि भी, निजकर्म रज आच्छादसे । संसारप्राप्त , न जानता वो सर्वको रीतसे ।।१६० ।।
गाथार्थ:- [ सः ] वह आत्मा [ सर्वज्ञानदर्शी] ( स्वभावसे) सर्वको जाननेदेखनेवाला है तथापि [ निजेन कर्मरजसा ] अपने कर्ममलसे [ अवच्छन्नः ] लिप्त होता हुआ-व्याप्त होता हुआ [ संसारसमापन्नः] संसारको प्राप्त हुआ वह [ सर्वतः] सर्व प्रकारसे [ सर्वम् ] सर्वको [ न विजानाति ] नहीं जानता।।
टीका:-जो स्वयं ही ज्ञान होनेके कारण विश्वको (-सर्व पदार्थोंको) सामान्यविशेषतया जाननेके स्वभाववाला है, ऐसा ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य , अनादि
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