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समयसार
यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये च परैः सत्त्वैः। स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।। २५० ।
परजीवानहं जीवयामि, परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणति सव्वण्हू ।
आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।। २५१ ।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।। २५२ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो जीव [ मन्यते ] यह मानता है कि [ जीवयामि ] मैं पर जीवोंको जिलाता हूँ [ च ] और [ परैः सत्त्वै: ] पर जीव [ जीव्ये च ] मुझे जिलाते हैं, [सः] वह [ मूढः ] मूढ़ ( - मोही) है, [ अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु] और [अतः विपरीतः] इससे विपरीत ( जो ऐसा नहीं मानता किन्तु इससे उल्टा मानता है) वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी है।
टीका:-' परजीवोंको मैं जिलाता हूँ, और परजीव मुझे जिलाते हैं' इसप्रकार का अध्यवसाय ध्रुवरूपसे ( - अत्यंत निश्चितरूपसे ) अज्ञान हैं । यह अध्यवसाय जिसके है वह जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है, और जिसके यह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ:- यह मानना अज्ञान है कि 'परजीव मुझे जिलाता है और मैं परको जिलाता हूँ' जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; तथा जिसके यह अज्ञान नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है।
अब यह प्रश्न होता है कि यह ( जीवनका ) अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? इसका उत्तर कहते हैं:
जीतव्य जीवनका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा।
तू आयु तो देता नहीं, तैने जीवन कैसे किया ? ।।२५१।। जीतव्य जीवनका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा। तो आयु तुझ देते नहीं, तो जीवन तुझ कैसे किया ? ।। २५२ ।।
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