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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बंध अधिकार ३७५ ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात्।ततो हिनस्मि, हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्। जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्तेति चेत्जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २५० ।। इसलिये किसी भी प्रकारसे कोई दूसरा किसी दुसरेका मरण कर नहीं कर सकता। इसलिये 'मैं परजीवोंको मारता हूँ, और पर जीव मुझे मारते हैं' ऐसा अध्यवसाय ध्रुवरूपसे ( –नियमसे) अज्ञान है। भावार्थ:-जीवकी जो मान्यता हो तदनुसार जगतमें नहीं बनता हो, तो वह मान्यता अज्ञान है। अपने द्वारा दूसरेका तथा दूसरेसे अपना मरण नहीं किया जा सकता तथापि यह प्राणी व्यर्थ में ही ऐसा मानता है सो अज्ञान है। यह कथन निश्चयनयकी प्रधानतासे है। व्यवहार इसप्रकार है:-परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे पर्यायका जो उत्पादव्यय हो उसे जन्म-मरण कहा जाता है; वहाँ जिसके निमित्तसे मरण (-पर्यायका व्यय) हो उसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि 'इसने इसे मारा', यह व्यवहार यहाँ ऐसा नहीं समझना कि व्यवहारका सर्वथा निषेध है। जो निश्चयको नहीं जानते, उनका अज्ञान मिटानेके लिये यहाँ कथन किया है। उसे जानने के बाद दोनों नयोंको अविरोधरूपसे जानकर यथायोग्य नय मानना चाहिये। अब पुनः प्रश्न होता है कि " ( मरणका अध्यवसाय अज्ञान है यह कहा सो जान लिया; किन्तु अब) मरणके अध्यवसायका प्रतिपक्षी जो जीवनका अध्यवसाय है उसका क्या हाल है ?" उसका उत्तर कहते हैं: जो मानता-मैं पर जिलावू , मुझ जीवन परसे रहे। वो मूढ है, अज्ञानी है, विपरीत इससे ज्ञानी है ।। २५०।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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