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समयसार
३७४
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं।। २४८ ।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। आउं ण हरति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।। २४९ ।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्। आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम्।। २४८ ।। आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्। आयुर्न हरन्ति तव कथं ते मरणं कृतं तैः।। २४९ ।।
मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात; स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य हर्तु शक्यं, तस्य स्वोपभोगेनैव क्षयिमाणत्वात;
है आयुक्षयसे मरण जीवका, ये हि जिनवर ने कहा। तू आयु तो हरता नहीं, तैने मरण कैसे किया ? ।।२४८ ।। है आयुक्षयसे मरण जीवका , ये हि जिनवर ने कहा।
वे आयु तुझ हरते नहीं, तो मरण तुझ कैसे किया ? ।। २४९।।
गाथार्थ:- (हे भाई! तू तो यह मानता है कि 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ' सो यह तेरा अज्ञान है।) [जीवानां] जीवोंका [ मरणं] मरण [आयुःक्षयेण] आयुकर्मके क्षयसे होता है [ जिनवरैः ] जिनेन्द्रदेव ने [प्रज्ञप्तम् ] कहा है; [त्वं ] तू [आयुः] पर जीवोंके आयुकर्मके तो [न हरसि] हरता नही है, [ त्वया] तो तूने [ तेषाम् मरणं ] उनका मरण [ कथं ] कैसे [ कृतं ] किया ?
(हे भाई! तू जो यह मानता है कि ‘पर जीव मुझे मारते हैं' सो यह तेरा अज्ञान है।) [ जीवानां] जीवोंका [ मरणं] मरण [ आयुःक्षयेण] आयुकर्मके क्षयसे होता है ऐसा [ जिनवरैः] जिनेन्द्रदेवने [प्रज्ञप्तम् ] कहा है; पर जीव [तव आयुः] तेरे आयुकर्मको तो [न हरन्ति ] हरते नहीं हैं, [ तै: ] तो उन्होंने [ ते मरणं] तेरा मरण [ कथं ] कैसे [ कृतं ] किया ?
टीका:-प्रथम तो, जीवोंका मरण वास्तवमें अपने आयुकर्मके क्षयसे ही होता है, क्योंकि अपने आयुकर्मके क्षयके अभावमें मरण होना अशक्य है; और दूसरे से दूसरेका स्व-आयुकर्म हरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह (स्व-आयुकर्म) अपने उपभोगसे ही क्षयको प्राप्त होता है;
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