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बंध अधिकार
३७३
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २४७ ।।
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः। स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २४७ ।।
परजीवानहं हिनस्मि , परजीवैर्हिस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्। स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्दृष्टिः।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
जो मानता-मैं मारूँ पर अरु घात पर मेरा करे । वो मूढ है, अज्ञानी है, विपरीत इससे ज्ञानी है ।। २४७।।
गाथार्थ:- [ यः] जो [ मन्यते ] यह मानता है कि [ हिनस्मि च] 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ [ परैः सत्त्वैः हिंस्ये च ] और पर जीव मुझे मारते हैं ', [ सः ] वह [ मूढः ] मूढ़ ( –मोही) है, [अज्ञानी] अज्ञानी है, [ तु] और [अतः विपरीतः] इससे विपरीत (जो ऐसा नहीं मानता वह) वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी है।
टीका:- मैं पर जीवोंको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं'-ऐसा अध्यवसाय ( मिथ्या अभिप्राय, आशय) ध्रुवरूपसे (-निश्चियतः, नियमसे) अज्ञान है। वह अध्यवसाय जिसके है वह अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनके कारण सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ:-'परजीवोंको मैं मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं' ऐसा अभिप्राय अज्ञान है इसलिये जिसका ऐसा आशय है वह अज्ञानी है-मिथ्यादृष्टि है और जिसका ऐसा आशय नहीं है वह ज्ञानी है-सम्यग्दृष्टि है।
निश्चयनयसे कर्ताका स्वरूप यह है-स्वयं स्वाधीनतया जिस भावरूप परिणमित हो उस भावका स्वयं कर्ता कहलाता है। इसलिये परमार्थतः कोई किसीका मरण नहीं करता। जो परसे परका मरण मानता है, वह अज्ञानी है। निमित्त-नैमित्तिक भावसे कर्ता कहना सो व्यवहारनयका कथन है; उसे यथार्थतया (अपेक्षाको समझकर) मानना सो सम्यग्ज्ञान है।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसके उत्तर स्वरूप गाथा कहते हैं:
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