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समयसार
३७२
__ ( वसन्ततिलका) जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः। रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिथ्यादृशः स नियतं स च बन्धहेतुः।। १६७ ।।
और रागादिकसे ही बंध कहा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते ज्ञानियोंको निरर्गल (-स्वछंदतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव ] क्योंकि यह निरर्गल प्रवर्तन वासतवमें बंधका का ही स्थान है। [ ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत् अकारणम् मतम्] ज्ञानियोंके वांछा रहित कर्म (कार्य) होता है वह बंधका कारण नहीं कहा है, क्योंकि [ जानाति च करोति ] जानता भी है और (कर्मको) करता भी है- [द्वयं किमु न हि विरुध्यते ] यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं है ? ( करना और जानना निश्चयसे विरोधरूप ही है।)
भावार्थ:-पहले काव्यमें लोक आदिको बंधका कारण नहीं कहा इसलिये वहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिका बंधके कारणोंमें सर्वथा ही निषेध किया है; बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामकी-बंधके कारणकी-निमित्तभूत है, उस निमित्तताका यहाँ निषेध नहीं समझना चाहिए। ज्ञानियोंके अबुद्धिपूर्वक-वांछा रहितप्रवृत्ति होती है इसलिये बंध नहीं कहा है, उन्हें कहीं स्वछंद होकर प्रवर्तनेको नहीं कहा; क्योंकि मर्यादा रहित (नि कुश) प्रवर्तना तो बंधका ही कारण है। जाननेमें और करनेमें तो परस्पर विरोध है; ज्ञाता रहेगा तो बंध नहीं होगा, कर्ता होगा तो अवश्य बंध होगा। १६६।
“जो जानता है सो करता नहीं और जो करता है सो जानता नहीं; करना तो कर्म का राग है, और जो राग है सो अज्ञान है तथा अज्ञान है बंधका कारण है"।- इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [यः जानाति सः न करोति ] जो जानता है सो करता नहीं [ तु] और [यः करोति अयं खलु जानाति न] जो करता है सो जानता नहीं । [ तत् किल कर्मरागः] करना तो वास्तवमें कर्मका राग है [ तु] और [ रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] रागको (मुनिने) अज्ञानमय अध्यवसाय कहा है; [ स: नियतं मिथ्यादृशः] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियमसे मिथ्यादृष्टिके होता है [च] और [ स बन्धहेतुः ] वह बंधका कारण है। १६७।
अब मिथ्यादृष्टिके आशयको गाथामें स्पष्ट कहते हैं:
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