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समयसार
श्री वीर निर्वाण सं०
साहित्य प्रकाशन कमेटी श्री दि. जैन स्वाध्याय मन्दिर सोनगढ़ [ सौराष्ट्र ]
---:: श्री वीतरागगुरवे नमः :
उपोद्घात ४ भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत यह समयप्राभृतत्त अथवा 'समयसार' नामका शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध' में का सर्वोत्कृष्ट आगम है।
द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह पहले अपन पट्टावालियोंके आधारसे संक्षेप में देख लेवें।
आज से २४६६ वर्ष पहले इस भरतक्षेत्र की पूण्य-भूमि में मोक्षमार्गका प्रकाश करने के लिये जगतपूज्य परम भट्टारक भगवान् श्री महावीर स्वामी अपनी सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा समस्त पदार्थों का स्वरूप प्रगट कर रहे थे। उनके निर्वाण के पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए, उनमेंसे अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी हुवे। वहाँ तक तो द्वादशांग शास्त्रके प्ररूपणसे व्यवहारनिश्चयात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तता रहा। तत्पश्चात् कालदोष से क्रमक्रमसे अंगोंके ज्ञान की व्युच्छित्ति होती गई। इस प्रकार अपार ज्ञान-सिन्धुका बहु भाग विच्छेद हो जाने के पश्चात् दूसरे श्री भद्रबाहुस्वामी आचार्य की परिपाटी में दो महा समर्थ मुनि हुए- एक का नाम श्री धरसेन आचार्य तथा दूसरोंका नाम श्री गुणधर आचार्य था। उनसे मिले हुए ज्ञान के द्वारा उनकी परम्परा में होने वाले आचार्योंने शास्त्रोंकी रचनाएँ की और श्री वीर भगवान के उपदेश का प्रवाह प्रवाहित रखा।
श्री धरसेन आचार्यको अग्रायणी पूर्वका पाँचवाँ वस्तु अधिकार उसके महाकर्मप्रकृति नाम चौथे प्राभृत का ज्ञान था। उस ज्ञानामृत में से अनुक्रमसे उनके पीछे के आचार्यों द्वारा षट्खंडागम, धवल, महाधवल, जयधवल, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार, आदि शास्त्रोंकी रचना हुई। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध की उत्पत्ति है। उसमें जीव और कर्म के संयोग से हुए आत्माकी संसार-पर्यायका----गुणस्थान, मार्गणा आदि का-----संक्षिप्त वर्णन है, पर्यायार्थिकनयको प्रधान करके कथन है। इस नय को अशुद्ध द्रव्यार्थिक भी कहते हैं अध्यात्मभाषा से अशुद्ध निश्चयनय अथवा व्यवहार कहते हैं।
श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वकी दसवीं वस्तुके तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञान में से उनके पीछे के आचार्यों ने अनुक्रमसे सिद्धान्त रचे। इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान् महावीर से प्रवाहित होता हुआ ज्ञान, आचार्योंकी परम्परासे भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव को प्राप्त हुआ। उन्होंने पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि शास्त्र रचे इसप्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। इसमें ज्ञान को प्रधान करके शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे कथन है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन है।
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