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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ४८० ( मालिनी) क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्। अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौधैः स्वयमयमभिषिञ्चश्चिच्चमत्कार एव।। २०६ ।। समस्त कर्तृत्वके भावसे रहित, एक ज्ञाता ही मानो। इसप्रकार एक ही आत्मामें कर्तृत्व तथा अकर्तृत्व-ये दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं। ऐसा स्याद्वाद मत जैनोंका है; और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है। ऐसा (स्याद्वादानुसार) माननेसे पुरुषको संसार-मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है; और सर्वथा एकांत माननेसे सर्व निश्चय-व्यवहारका लोप होता है। २०५। आगेकी गाथाओंमें, ‘कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है' ऐसा माननेवाले क्षणिकवादी बौद्धमतियोंकी सर्वथा एकांत मान्यतामें दूषण बतायेंगे और स्याद्वाद अनुसार जिसप्रकार वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापन है उसीप्रकार कहेंगे। उन गाथाओंका सूचक काव्य प्रथम कहते हैं: श्लोकार्थ:- [इह ] इस जगतमें [ एक:] कोई एक तो ( अर्थात् क्षणिकवादी बौद्धमती) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा ] इस आत्मतत्त्वको क्षणिक कल्पित करके [ निज-मनसि ] अपने मनमें [ कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदं विधत्ते ] कर्ता और भोक्ताका भेद करते हैं ( –कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [ तस्य विमोहं] उनके मोहको (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कार: एव स्वयम् ] यह चैतन्यचमत्कार ही स्वयं [नित्य-अमृत-ओधैः] नित्यतारूप अमृतके ओघ (-समूह) के द्वारा [ अभिषिञ्चन् ] अभिसिंचन करता हुआ , [अपहरति ] दूर करता है। भावार्थ:-क्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामें भेद मानते हैं, अर्थात् वे यह मानते हैं कि-प्रथम क्षणमें जो आत्मा था वह दूसरे क्षणमें नहीं है। आचार्यदेव कहते हैं कि हम उसे क्या समझायें ? वह चैतन्य ही उसका अज्ञान दूर कर देगा-कि जो (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य है। प्रथम क्षणमें जो आत्मा था वही द्वितीय क्षणमें कहता है कि 'मैं जो पहले था वहीं हूँ'; इसप्रकारका स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्माकी नित्यता बतलाता है। यहाँ बौद्धमती कहता है कि-'जो प्रथम क्षणमें था वहीं मैं दूसरे क्षणमें हूँ' ऐसा मानना वह तो अनादिकालीन अविद्यासे भ्रम है; यह भ्रम दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त कलेश मिटे। उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि -" हे बौद्ध ! तू यह तो तर्क ( दलील) करता है उस सम्पूर्ण तर्कको करनेवाला एक ही आत्मा है या अनेक आत्मा हैं ? और तेरे सम्पूर्ण तर्क को एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मानकर तू तर्क करता है या सम्पूर्ण तर्कको पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं ऐसा Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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