________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४८१
( अनुष्टुभ् ) वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात्। अन्यः करोति भुंक्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा।। २०७ ।।
मानकर तर्क करता है ? और तेरी सम्पूर्ण तर्क एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मान कर तू तर्क करता है या सम्पूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मायें पलट जाये हैं ऐसा मान कर तर्क करता है? यदि अनेक आत्मा बदल जातें हो तो तेरे सम्पूर्ण तर्कको कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फिर तर्क करनेका क्या प्रयोजन है ? * यों अनेक प्रकार से विचार करने पर तुझे ज्ञात होगा कि आत्माको क्षणिक मानकर प्रत्यभिज्ञानको भ्रम कह देना वह यथार्थ नहीं है। इसलिये यह समझना चाहिये किआत्माको एकांतत: नित्य या एकांततः अनित्य मानना वह दोनों भ्रम हैं, वस्तुस्वरूप नहीं; हम (जैन) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहते हैं वही सत्यार्थ है।" २०६।
पुनः, क्षणिकवादका युक्ति द्वारा निषेध करता हुआ, और आगेकी गाथाओंका सुचक काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ:- [वृति-अंश-भेदतः] वृत्त्यंशोंके अर्थात् पर्यायके भेदके कारण [अत्यन्तं वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात् ] 'वृत्तिमान अर्थात् द्रव्य सर्वथा नष्ट हो जाता है' ऐसी कल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति] 'अन्य करता है और [अन्यः भुंक्ते] अन्य भोगता है' [इति एकान्तः मा चकास्तु] ऐसा एकांत प्रकाशित मत करो।
भावार्थ:-द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं इसलिये बौद्ध यह मानते हैं कि 'द्रव्य ही सर्वथा नष्ट होता है। ऐसी एकांत मान्यता मिथ्या है। यदि पर्यायवान पदार्थका ही नाश हो जाये तो पर्याय किसके आश्रयसे होगी? इसप्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आनेसे शून्यका प्रसंग आता है। २०७।
अब निम्नलिखित गाथाओंमें अनेकांतको प्रगट करके क्षणिकवादका स्पष्टतया निषेध करते हैं:
* यदि यह कहा जाये कि 'आत्मा तो नष्ट हो जाता है किन्तु वह संस्कार छोड़ता जाता है तो यह भी
यथार्थ नहीं है; यदि आत्मा नष्ट हो जाये तो आधारके बिना संस्कार कैसे रह सकता है ? और यदि कदाचित् एक आत्मा संस्कार छोड़ता जाये , तो भी उस आत्माके संस्कार दूसरे आत्मामें प्रविष्ट हो जायें ऐसा नियम न्यायसंगत नहीं है।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com