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पुण्य-पाप अधिकार
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अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगणहेदुं पि मोक्खहेदूं अजाणंता।। १५४ ।।
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छन्ति। संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानन्तः।। १५४ ।।
इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसम्भावितात्मलाभं मोक्षमभिलष-न्तोऽपि, तद्धेतुभूतं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्र-मैकण्यलक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि, दुरन्तकर्मचक्रोत्तरण-क्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमात्रं सामायिकमात्मस्वभावमलभमानाः, प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेश ।
स्वयम् अपि शिवः इति ] वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है [ बन्धस्य ] वह बंधका हेतु है [ यतः ] क्योंकि [ तत् स्वयम् अपि बन्धः इति] वह स्वयमेव बंधस्वरूप है। [तत:] इसलिये आगम में [ ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप होनेका (-ज्ञानस्वरूप परिणमित होनेका ) अर्थात् [अनुभूतिः हि] अनुभूति करनेका ही [ विहितम् ] विधान है। १०५ ।
अब फिर भी, पुण्यकर्मके पक्षपातीको समझाने के लिये उसका दोष बतलाते हैं:
परमार्थबाहिर जीवगण, जानें न हेतू मोक्षका । अज्ञानसे वे पुण्य इच्छे, हेतु जो संसारका ।। १५४ ।।
गाथार्थ:- [ये ] जो [ परमार्थबाह्यः] परमार्थसे बाह्य हैं [ ते ] वे [ मोक्षहेतुम् ] मोक्षके हेतुको [ अजानन्तः ] न जानते हुए- [ संसारगमनहेतुम् अपि] संसारगमनका हेतु होनेपर भी- [अज्ञानेन] अज्ञानसे [ पुण्यम् ] पुण्यको (मोक्षका हेतु समझकर) [ इच्छन्ति ] चाहते हैं।
टीका:-समस्त कर्मों के पक्षका नाश करनेसे उत्पन्न होनेवाले (-निज स्वरूपकी प्राप्ति ) आत्मलाभस्वरूप मोक्षको इस जगतमें कितने ही जीव चाहते हुए भी, मोक्षकी कारणभूत सामायिककी-जो ( सामायिक ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाले परमार्थभूत ज्ञानकी भवनमात्र है, एकाग्रतालक्षणयुक्त है और समयसारस्वरूप है उसकी-प्रतिज्ञा लेकर भी, दुरंत कर्मचक्रको पार करनेकी नपुंसकताके कारण परमार्थभूत ज्ञानके भवनमात्र सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावको न प्राप्त होते हुए, जिनके अत्यंत स्थूल संकलेश
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