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समयसार
२४४
व्रतनियमात् धारयन्तः शीलानि तथा तपश्च कुर्वन्तः। परमार्थबाह्या ये निर्वाणं ते न विन्दन्ति।। १५३ ।।
ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामन्तव्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात्। अज्ञानमेव बन्धहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहिर्वतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात्।
(शिखरिणी) यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति। अतोऽन्यद्वन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्।।१०५ ।।
गाथार्थ:- [ व्रतनियमान् ] व्रत और नियमोंको [धारयन्तः ] धारण करते हुए भी [ तथा ] तथा [शीलानि च तपः ] शील और तप [ कुर्वन्तः ] करते हुए भी [ ये] जो [ परमार्थबाह्याः ] परमार्थमें बाह्य हैं (अर्थात् परम पदार्थरूप ज्ञानका-ज्ञानस्वरूप आत्माका जिसको श्रद्धान नहीं है ] [ ते ] वे [ निर्वाण ] निर्वाणको [ न विन्दन्ति ] प्राप्त नहीं होते।
टीका:-ज्ञान ही मोक्षका हेतु है; क्योंकि उसके अभावमें, स्वयं ही अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियों के अंतरंगमें व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मोंका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव है। अज्ञान ही बंधका कारण है; क्योंकि उसके अभावमें, स्वयं ही ज्ञानरूप होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रत, नियम, शील , तप इत्यादि शुभ कर्मोंका असद्भाव होनेपर भी मोक्षका सद्भाव है।
भावार्थ:-ज्ञानरूप परिणमन ही मोक्षका कारण है और अज्ञानरूप परिणमन ही बंधका कारण है; व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ भावरूप शुभ कर्म कहीं मोक्षके कारण नहीं हैं; ज्ञानरूप परिणमित ज्ञानीके वे शुभ कर्म न होनेपर भी वह मोक्ष को प्राप्त करता है; अज्ञानरूप परिणमित अज्ञानीके वे शुभकर्म होनेपर भी, वह बंधको प्राप्त करता है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते है :---
श्लोकार्थ:- [ यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता है-परिणमता हुआ भासित होता है, [अयं शिवस्य हेतुः] वही मोक्षका हेतु है [ यतः ] क्योंकि [ तत्
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