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समयसार
२४६
परिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्ध-परिणामकर्माण:, कर्मानु भवगुरुलाधवप्रतिपत्तिमात्रसन्तुष्टचेतसः, स्थूललक्ष्यतया
सकलं कर्मकाण्डमनुन्मूलयन्तः, स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बन्धहेतुमध्यास्य च, व्रतनियमशीलतपः प्रभृतिशुभकर्म बन्धहेतुमप्यजानन्तो, मोक्षहेतुमभ्युपगच्छन्ति।
अथ परमार्थमोक्षहेतुं तेषां दर्शयतिजीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।। १५५ ।।
जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानम्। रागादिपरिहरणं चरणं एषस्तु मोक्षपथः।। १५५ ।।
परिणामरूप कर्म निवृत्त हुए है और अत्यंत स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्म प्रवर्त रहे हैं ऐसे वे, कर्मके अनुभवके गुरुत्व-लधुत्वकी प्राप्तिमात्रसे ही संतुष्ट चित्त होते हुए भी, स्वयं स्थूल लक्षवाले होकर ( संकलेशपरिणामको छोड़ते हुए भी) समस्त कर्मकांडको मूलसे नहीं उखाड़ते। इसप्रकार वे, सवयं अपने अज्ञानसे केवल अशुभ कर्मको ही बंधका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील , तप इत्यादि शुभ कर्मोको बंधका कारण होनेपर भी उन्हें बंधका कारण न जानते हुए, मोक्षके कारणरूपमें अंगीकार करते हैंमोक्षका कारणरूपमें उनका आश्रय करते हैं।
भावार्थ:-कितने ही अज्ञानीजन दीक्षा लेते समय सामायिककी प्रतिज्ञा लेते हैं, परंतु सूक्ष्म ऐसे आत्मस्वभावकी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव न कर सकने से , स्थूल लक्ष्यवाले वे जीव स्थूल संकलेशपरिणामोंको छोड़कर ऐसे ही स्थूल विशुद्धपरिणामोंमें (शुभ परिणामोंमें) राचते हैं, ( संकलशपरिणाम तथा विशुद्ध परिणाम दोनों अत्यंत स्थूल हैं; आत्मस्वभाव ही सुक्ष्म है।) इसप्रकार वे, यद्यपि वास्तविकतया सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावका अनुभवन ही मोक्षका कारण है तथापि-कर्मानुभवके अल्पबहुत्वको ही बंध-मोक्षका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मोंका मोक्षके हेतुके रूपमें आश्रय करते हैं।
अब जीवोंको परमार्थ ( वास्तविक ) मोक्षका कारण बतलाते हैं:
जीवादिका श्रद्धान समकित, ज्ञान उसका ज्ञान है।
रागादि-वर्जन चरित है, अरु ये ही मुक्तिपंथ है ।। १५५ ।।
गाथार्थ:- [ जीवादिश्रद्धानं ] जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान [ सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व है, [ तेषाम् अधिगमः] उन जीवादि पदार्थोंका अधिगम [ ज्ञानम् ] ज्ञान है और [ रागादिपरिहरणं ] रागादिका त्याग [ चरणं] चारित्र है;- [ एषः तु] यही
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