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मोक्षहेतु: किल
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि।
तत्र सम्यग्दर्शनं
तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव परमार्थमोक्षहेतुः।
ज्ञानस्य
भवनं भवनमायातम्।
चारित्रम्। तदेवं ततो ज्ञानमेव
अथ परमार्थमोक्षहेतोरन्यत् कर्म प्रतिषेधयति
मोत्तूण णिच्छयद्वं ववहारेण विदुसा पवट्टंति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।। १५६ ।। मुक्त्वा निश्चयार्थं व्यवहारेण विद्वांसः प्रवर्तन्ते। परमार्थमाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो विहितः ।। १५६ ।।
ज्ञानस्य
[ मोक्षपथः ] मोक्षका मार्ग है।
टीका:- मोक्षका कारण वास्तवमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है । उसमें, सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञानका होना - परिणमन करना है; जीवादि पदार्थोंके ज्ञानस्वभावरूप ज्ञानका होना - परिणमन करना ज्ञान है; रागादिके त्यागस्वभावरूप ज्ञानका होना - परिणमन करना सो चारित्र है। अतः इसप्रकार सम्यग्दर्शन-इ - ज्ञान - चारित्र तीनों एक ज्ञानका ही भवन ( - परिणमन ) है । इसलिये ज्ञान ही परमार्थ ( वास्तविक ) मोक्षका कारण है।
भावार्थ:-आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान ही है । और इस प्रकरणमें ज्ञानको ही प्रधान करके विवेचन किया है। इसलिये 'सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीनों स्वरूप ज्ञान ही परिणमित होता है' यह कह कर ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। ज्ञान है वह अभेद विवक्षामें आत्मा ही है-ऐसा कहने में कुछ भी विरोध नहीं है, इसलिये टीकामें कई स्थानोंपर आचार्यदेवने ज्ञानस्वरूप आत्माको 'ज्ञान' शब्दसे कहा है।
परमार्थ मोक्षकारणसे अन्य जो कर्म उनका निषेध करते हैं
अब,
विद्वान् जन भूतार्थ तज, व्यवहारमें वर्तन करे ।
पर कर्मनाश विधान तो, परमार्थ- आश्रित संतके ।। १९५६ ॥
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गाथार्थ:- [ निश्चयार्थ ] निश्चयनयके विषयको [ मुक्त्वा ] छोड़कर [ विद्वांसः ] विद्वान [ व्यवहारेण ] व्यवहारके द्वारा [ प्रवर्तन्ते ] प्रवर्तते हैं; [तु] परंतु [ परमार्थम् आश्रितानां ] परमार्थके ( - आत्मस्वरूपके) आश्रित [ यतीनां ] यतीश्वरोंके
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