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समयसार
२४८
यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो व्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषाञ्चिन्मोक्षहेतु: स सर्वोऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानमवनस्याभवनात; परमार्थमोक्षहेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात्।
(अनुष्टुभ् ) वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा। एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत्।। १०६ ।।
(अनुष्टुभ् ) वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि। द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत्।।१०७ ।।
ही [ कर्मक्षयः] कर्मोंका नाश [ विहितः] आगममें कहा गया है। (केवल व्यवहारमें प्रवर्तन करनेवाले पंडितोंके कर्मक्षय नहीं होता।)
टीका:-कुछ लोग परमार्थ मोक्षहेतुसे अन्य, जो व्रत, तप इत्यादि शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु मानते हैं, उस समस्त ही का निषेध किया गया है; क्योंकि वह (मोक्षहेतु) अन्य द्रव्यके स्वभाववाला (पुद्गलस्वभाववाला) है इसलिये उसके स्व-भावसे ज्ञानका भवन (होना) नहीं बनता, –मात्र परमार्थ मोक्षहेतु ही एक द्रव्यके स्वभाववाला (जीवस्वभाववाला) है इसलिये उसके स्वभावके द्वारा ज्ञानका भवन (होना) बनता है।
भावार्थ:-क्योंकि आत्माका मोक्ष होता है इसलिये उसका कारण भी आत्मस्वभावी ही होना चाहिये। जो अन्य द्रव्यके स्वभाववाला है उससे आत्माका मोक्षका कैसे हो सकता है ? शुभ कर्म पुद्गलस्वभाववाले हैं इसलिये उनके भवनसे परमार्थ आत्माका भवन नहीं बन सकता; इसलिये वे आत्माके मोक्षके कारण नहीं होते। ज्ञान आत्मस्वभावी है इसलिये उसके भवनसे आत्माका भवन बनता है; अतः वह आत्माके मोक्षका कारण होता है। इसप्रकार ज्ञान ही वास्तविक मोक्षहेतु है।
अब इसी अर्थके कलशरूप दो श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:-[ एकद्रव्यस्वभावत्वात् ] ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी (-जीवस्वभावी-) होनेसे [ ज्ञानस्वभावेन ] ज्ञानके स्वभावसे [ सदा] सदा [ ज्ञानस्य भवनं वृत्तं] ज्ञानका भवन बनता है; [ तत् ] इसलिये [तद् एव मोक्षहेतुः ] ज्ञान ही मोक्षका कारण है। १०६।
श्लोकार्थ:- [ द्रव्यान्तरस्वभाववात् ] कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी (-पुद्गलस्वभावी-) होनेसे [कर्मस्वभावेन] कर्मके स्वभावसे [ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं] ज्ञानका भवन नहीं बनता; [ तत् ] इसलिये [ कर्म मोक्षहेतुः न ] कर्म मोक्षका कारण नहीं है। १०७।
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