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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
( मालिनी) यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।। २२० ।।
इसलिये (आचार्यदेव कहते हैं कि) हम जीवके रागादिका उत्पादक परद्रव्य को नहीं देखते ( –मानते) कि जिस पर कोप करें।
भावार्थ:-आत्माको रागादिक उत्पन्न होते हैं सो वे अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं। यदि निश्चयनयसे विचार किया जाये तो अन्यद्रव्य रागादिका उत्पन्न करने वाला नहीं है, अन्यद्रव्य उनका निमित्तमात्र है; क्योंकि अन्यद्रव्यके अन्यद्रव्य गुणपर्याय उत्पन्न नहीं करता यह नियम है। जो यह मानते हैं-ऐसा एकांत ग्रहण करते हैं कि'परद्रव्य ही मुझमें रागादिक उत्पन्न करते हैं', वे नयविभागको नहीं समझते, वे मिथ्यादृष्टि हैं। यह रागादिक जीवके सत्त्वमें उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र हैं-ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है। इसलिये आचार्यदेव कहते हैं कि हम रागद्वेषकी उत्पत्तिमें अन्य द्रव्य पर क्यों कोप करें? राग-द्वेषका उत्पन्न होना तो अपना ही अपराध है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस आत्मामें [ यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति ] जो रागद्वेषरूप दोषोंकी उत्पत्ति होती है [ तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति ] उसमें परद्रव्यका कोई भी दोष नहीं है, [ तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;- [विदितम् भवतु] इस प्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तं यातु] अज्ञान अस्त हो जाये; [ बोधः अस्मि ] मैं तो ज्ञान हूँ।
भावार्थ:-अज्ञानी जीव परद्रव्यमें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हुई मान कर परद्रव्य पर कोप करता है कि 'यह परद्रव्य मुझे रागद्वेष उत्पन्न कराता है, उसे दूर करूँ'। ऐसे अज्ञानी जीवको समझाने के लिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं किरागद्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे आत्मामें ही होती है और वे आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं। इसलिये इम अज्ञानको नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो; परद्रव्यको रागद्वेषका उत्पन्न करनेवाला मानकर उसपर कोप न करो। २२०।
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