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________________ ५१६ हैं: Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ( रथोद्धता ) रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।। २२१ ।। अब इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिये आगामी कथनका सूचक काव्य कहते श्लोकार्थ:- [ ये तु राग- जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति ] जो रागकी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व ( कारणत्त्व) मानते हैं, ( अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते, ) [ ते शुद्ध-बोध-विधुर - अन्ध - बुद्धयः ] वे - जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अंध है ऐसे ( अर्थात् जिनकी बुद्धि शुद्धनयके विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंध है ऐसे ) [ मोह-वाहिनीं न हिं उत्तरन्ति ] मोहनदीको पार नहीं कर सकते । - भावार्थ::- शुद्धनयका विषय आत्मा अनंत शक्तिवान, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक है। वह अपने ही अपराधसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है। ऐसा नहीं है कि जिसप्रकार निमित्तभूत परद्रव्य परिणमित कराता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है, और उसमें आत्माका कोई पुरुषार्थ ही नहीं है । जिन्हें आत्माके ऐसे स्वरूपका ज्ञान नहीं है वे यह मानते हैं कि परद्रव्य आत्माको जिसप्रकार परिणमन कराता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है। ऐसा माननेवाले मोहरूपी नदीको पार नहीं कर सकते ( अथवा मोह सैन्यको नहीं हरा सकते), उनके रागद्वेष नहीं मिटते; क्योंकि रागद्वेष करनेमें यदि अपना पुरुषार्थ हो तो वह उनके मिटाने में भी हो सकता है, किन्त यदि दूसरे के कराये ही रागद्वेष होते हों तो पर तो रागद्वेष कराया ही करे, तब आत्मा उन्हें कहाँ से मिटा सकेगा ? इसलिये रागद्वेष अपने किये होते और अपने मिटाये मिटते हैं - इसप्रकार कथंचित् मानना, सो सम्यग्ज्ञान है । २२१ । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दादिरूप परिणमते पुद्गल आत्मासे कहीं यह नहीं कहते हैं कि 'तू हमें जान', और आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उन्हें जाननेको नहीं जाता। दोनों सर्वथा स्वतंत्रतया अपने अपने स्वभावसे ही परिणमित होते हैं। इसप्रकार आत्मा परके प्रति उदासीन ( - संबंध रहित, तटस्थ ) है, तथापि अज्ञानी जीव स्पर्शादिको अच्छे-बुरे मानकर रागीद्वेषी होता है यह उसका अज्ञान है। इस अर्थ की गाथा कहते हैं: Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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