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समयसार
इति जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रान्तौ।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
इति कर्तृकर्मप्ररूपकः द्वितीयोऽङ्क ।।
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
टीका:- इसप्रकार जीव और अजीव कर्ताकर्मका वेश त्यागकर बाहर निकल गये ।
भावार्थ:-जीव और अजीव दोनों कर्ता-कर्मका वेश धारण करके एक होकर रंगभूमिमें प्रविष्ट हुए थे। जब सम्यग्दृष्टिने अपने यथार्थ दर्शक ज्ञानसे उन्हें भिन्न भिन्न लक्षणसे यह जान लिया कि वे एक नहीं किन्तु दो अलग अलग हैं, तब वे वेष का त्याग करके रंगभूमिमेंसे बाहर निकल गये । बहुरूपिया की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि जब तक देखनेवाले उसे पहिचान नहीं लेते तबतक वह अपनी चेष्ठाएँ किया करता है, किन्तु जब कोई यथार्थरूपसे पहिचान लेता है तब वह निज रूप प्रगट करके चेष्टा करना छोड़ देता है । इसीप्रकार यहाँ भी समझना ।
जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वणै करता सो, ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो; ज्ञान भये करता न बने तब बंध न होय खुलै परपासो, आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो ।
इसप्रकार (श्रीमद् भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसार शास्त्रकी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें कर्ताकर्मका प्ररूपक द्वितीय अंक समाप्त हुआ।
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