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-४आस्रव अधिकार
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अथ प्रविशत्यास्त्रवः।
(द्रुतविलम्बित) अथ महामदनिर्भरमन्थरं समररङ्गपरागतमास्रवम्। अयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ।। ११३ ।।
---००० दोहा ०००--- द्रव्यास्त्रवतें भिन्न है, भावास्त्रव करि नास ।
भये सिद्ध परमातमा, नमूं तिनहिं, सुख आस।। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि-- 'अब आस्रव प्रवेश करता है'। जैसे नृत्यमंच स्वाँग पर नृत्यकार स्वाँग धारण कर प्रवेश करता है उसी प्रकार यहाँ आस्रवका स्वाँग है। उस स्वाँगको यथार्थतया जाननेवाला सम्यग्ज्ञान है उसकी महिमारूप मंगल करते हैं:
श्लोकार्थ:- [अथ] अब [ समररङ्गपरागतम् ] समरांगणमें आये हुए, [ महामदनिर्भरमन्थरं] महामदसे भरे हुए मदोन्मत [आस्रवम् ] आस्रवको [अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः] यह दुर्जय ज्ञान–धनुर्धर [जयति] जीत लेता है, [ उदारगभीरमहोदय:] जिसका (-ज्ञानरूपी बाणावलीका) महान उदय उदार है ( अर्थात् आस्रवको जीतने के लिये जितना पुरुषार्थ चाहिये उतना वह पूरा करता है) और गंभीर है, ( अर्थात् छद्मस्थ जीव जिसका पार नहीं पा सकते)।
भावार्थ:-यहाँ आस्रवने नृत्यमंच पर प्रवेश किया है। नृत्यमें अनेक रसोंका वर्णन होता है इसलिये यहाँ रसवत् अलंकारके द्वारा शान्त रसमें वीर रसको प्रधान करके वर्णन किया है कि 'ज्ञानरूपी धनुर्धर आस्रवको जीतता है'। समस्त विश्व को जीतकर मदोन्मत्त हुआ आस्रव संगामभूमिमें आकर खड़ा हो गया; किन्तु ज्ञान तो उससे भी अधिक बलवान योद्धा है इसलिये वह आस्रवको जीत लेता है अर्थात् अंतर्मुहूर्तमें कर्मोंका नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करता है। ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है। ११३।
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