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समयसार
२५८
इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम्।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपक: तृतीयोऽङ्कः।।
टीका:-पुण्य-पापरूपसे दो पात्रोंके रूपमें नाचनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया।
भावार्थ:-यद्यपि कर्म सामान्यतया एक ही है तथापि उसने पुण्य-पापरूपी दो पात्रोंका स्वांग धारण करके रंगभूमिमें प्रवेश किया था। जब उसे ज्ञानने यथार्थतया एक जान लिया तब वह एक पात्ररूप होकर रंगभूमिसे बाहर निकल गया, और नृत्य करना बन्द कर दिया।
आश्रय, कारण, रूप, सवादसुं भेद विचारि गिनें दोऊ न्यारे, पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बंध भये सुखदुःखकरा रे। ज्ञान भये दोउ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे,
बंधके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हें तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे। इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीकामें पुण्यपापका प्ररूपक तीसरा अंक समाप्त हुआ।
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