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समयसार
२६०
तत्रास्रवस्वरूपमभिदधाति
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सण्णसण्णा दु। बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा।। १६४ ।। णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होंति। तेसि पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो।।१६५ ।।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु। बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः।। १६४ ।। ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मणः कारणं भवन्ति। तेषामपि भवति जीवश्च रागद्वेषादिभावकरः।। १६५ ।।
रागद्वेषमोहा आम्रवाः इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ता: अजडत्वे सति चिदाभासाः। मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादि
अब आस्रवका स्वरूप कहते हैं:
मिथ्यात्व अविरत अरु कषायें, योग संज्ञ असंज्ञ हैं। ये विविध भेद जु जीवमें, जीवके अनन्य हि भाव हैं ।। १६४।। अरु वे हि ज्ञानावरणआदिक, कर्मके कारण बनें । उनका भि कारण जीव बने, जो रागद्वेषादिक करे ।।१६५।।
गाथार्थ:- [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व , [ अविरमणं ] अविरमण , [ कषाययोगौ च ] कषाय और योग-यह आस्रव [ संज्ञासंज्ञाः तु] संज्ञ (चेतनके विकार) भी हैं और असंज्ञ (पुद्गलके विकार) भी हैं। [ बहुविधभेदाः] विविध भेदवाले संज्ञ आस्रव[ जीवे ] जो कि जीवमें उत्पन्न होते हैं वे- [ तस्य एव] जीवके ही [अनन्यपरिणामाः] अनन्य परिणाम है। [ ते तु] और असंज्ञ आस्रव [ज्ञानावरणाद्यस्य कर्मणः ] ज्ञानावरण आदि कर्मके [ कारणं ] कारण (निमित्त) [ भवन्ति ] होते हैं [ च] और [ तेषाम् अपि] उनका भी (असंज्ञ आस्रवोंके भी कर्मबंधका निमित्त होनेमें) [ रागद्वेषादिभावकरः जीव: ] रागद्वेषादि भाव करनेवाला जीव [ भवति ] कारण [ निमित्त ] होता है।
टीका:-इस जीवमें राग, द्वेष और मोह-यह आस्रव अपने परिणामके कारणसे होते हैं इसलिये वे जड़ न होनेसे चिदाभास हैं (-अर्थात् जिसमें चैतन्यका आभास है ऐसे हैं, चिद्विकार हैं)। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-यह पुद्गलपरिणाम, ज्ञानावरणादि
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