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पूर्वरंग
(मालिनी) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ।। ११ ।।
श्लोकार्थ:- [जगत् तम् एव सम्यक्स्वभावम् अनुभवतु] जगतके प्राणियों! इस सम्यक् स्वभावका अनुभव करो कि [ यत्र] जहाँ [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः ] यह बद्धस्पृष्टादिभाव [ एत्य स्फुटम् उपरि तरन्तः अपि] स्पष्टतया उस स्वभावके ऊपर तरते हैं, तथापि वे [प्रतिष्ठाम् न हि विदधति] ( उसमें) प्रतिष्ठा नहीं पाते, क्योंकि द्रव्यस्वभाव तो नित्य है, एकरूप है और यह भाव अनित्य हैं, अनेकरूप हैं; पर्यायें द्रव्यस्वभावमें प्रवेश नहीं करती, ऊपर ही रहती हैं। [ समन्तात् द्योतमानं ] यह शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओमें प्रकाशमान है। [ अपगतमोहीभूय ] ऐसे शुद्ध स्वभावका, मोह रहित होकर जगत अनुभव करे; क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वरूपी अज्ञान जहाँ तक रहता है, वहाँ तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता।
भावार्थ:- यहाँ यह उपदेश है कि शुद्धनय के विषयरूप आत्माका अनुभव करो ।। ११।।
अब , इस अर्थ का सूचक कलशरूप काव्य पुनः कहते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ऐसा अनुभव करने पर आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान होता है :
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