________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार
४२
( शार्दूलविक्रीडित) भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधीर्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ।। १२ ।।
श्लोकार्थ:- [ यदि ] यदि [ कः अपि सुधी:] कोई सुबुद्धि ( सम्यग्दृष्टि ) [ भूतं भान्तम् अभूतम् एव बन्धं ] जीव भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालमें कर्मों के बंधको अपने आत्मासे [ रभसात् ] तत्काल-शीध्र [ निर्भिद्य ] भिन्न करके तथा [ मोहं] उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले मिथ्यात्व (अज्ञान) को [ हठात् ] अपने बलसे ( पुरुषार्थसे ) [ व्याहत्य] रोककर अथवा नाश करके [अन्तः ] अंतरंगमें [ किल अहो कलयति] अभ्यास करे-देखे तो [ अयम् आत्मा ] यह आत्मा [ आत्मअनुभव-एकगम्य-महिमा ] अपने अनुभवसे ही जाननेयोग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा [व्यक्तः] व्यक्त ( अनुभवगोचर ), [ ध्रुवं ] निश्चल, [ शाश्वतः ] शाश्वत, [ नित्यं कर्म-कलङ्क-पङ्कविकल: ] नित्य कर्मकलङ्ग-कर्दमसे रहित [ स्वयं देव: ] स्वयं ऐसा स्तुति करने योग्य देव [ आस्ते] विराजमान है।
भावार्थ:- शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो सर्व कर्मोंसे रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरङ्गमें स्वयं विराजमान हैं। यह प्राणी-पर्यायबुद्धि बहिरात्मा-उसे बाहर ढूँढता है, यह महा अज्ञान है।। १२।।
अब, 'शुद्धनयके विषयभूत आत्माकी अनुभूति ही ज्ञानकी अनुभूति है' इसप्रकार आगेकी गाथाकी सूचनाके अर्थरूप काव्य कहते हैं:
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com