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पूर्वरंग
४३
( वसंततिलका) आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुव। आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्पकम्पमेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात्।। १३ ।।
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [ या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः] जो पूर्व-कथित शुद्धनयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है [ इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः] वही वास्तवमें ज्ञानकी अनुभूति है, [इति बुद्धवा] यह जानकर तथा [ आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य ] आत्मामें आत्माको निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घन: अस्ति] 'सदा सर्व ओर एक ज्ञानघन आत्मा है,' इसप्रकार देखना चाहिये।
भावार्थ:- पहले सम्यग्दर्शनको प्रधान करके कहा था; अब ज्ञानको मुख्य करके कहते हैं कि शुद्धनय के विषयस्वरूप आत्मा की अनुभूति ही सम्यग्ज्ञान है। १३।
अब, इस अर्थरूप गाथा कहते हैं:
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